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अन्तमूल
अन्तमूह
पुनः प्रवाहिका में तथा कराज्य एवं स्वेदक रूप से इसको जड़ इपिकेकाइना की कहीं सर्वोत्तम प्रतिनिधि है।
चार वर्ष हुए जब मझे कतिपय देशी दवाओं की आलोचना का अवसर प्राप्त हुश्रा, तब अन्तमूल के सम्बन्ध में मेरे विचार निम्न प्रकार थे।
वामक रूप से तथा अधिक मात्रा में प्रवाहिका की चिकित्सा में दोनों प्रकार से इपिकेक्वाइना का प्रतिनिधि स्वरूप में पाए जाने वाली एतद्देशीय प्रौषधों में यह सर्वोत्तम है। २० से । ४० ग्रेन (10 से २० रत्ती ) इसका चूर्ण और इतनी हो वुद की मात्रा में टिंक्रा अोपियाई २४ घंटों में दिन में तीन-चार बार सेवन कराने से यह उतना ही शीत्र एवं सफतलापूर्वक रोग का निराकरण करता है जितना शीघ्रकि इपिकेक्वाइना ।
श्वास रोग में वामक या कण्ठ्य रूपसे भी इसका ..... उपयोग इपिके काइना की अपेक्षा उत्तम रहता है। ...
.. । सर्पदंश के अगद स्वरूप कोई अन्य औषध की अपेक्षा एमोनिया के बाद अन्तमूल पर मेरा अधिक विश्वास है। जब तक स्वतन्त्र वमन न : प्राने लगे तब तक इसका ताजा रस अधिक मात्रा में थोड़ी थोड़ी देर पर देते रहें। इसके बाद सशक एवं सांगिक उत्तेजक का व्यवहार करें।
देशी औषधे के अपने अधिक विशाल अन . भव के पश्चात् मैंने अन्तमूल को सर्वोत्तम ही नहीं, प्रत्युत भारतीय ४, ५ सर्वोत्कृष्ट वामक श्रोपधियों में एक पाया।
कतक (निर्मली) तथा मदनफल के पश्चात् इसका दर्जा पाता है। यद्यपि इसका सर्वाश वामक है तथापि प्रवाहिका में केवल इसकी जड़
उत्तम रोगनिवारक कार्य करती है। उक्त रोग * में इसका प्रभाव कतकवत् होता है । (स० फा० इं०पृ०३६३)
डॉ. किर्क पत्रिक ( Cat. of mysore drugs) में लिखते हैं-यदि प्रबल वमन फी श्रावश्यकता हो तो २० से ३० ग्रेन की मात्रा
में उक्त श्रोपधि को एक या श्राध ग्रेन टार्टार इमेटिक के साथ दें । मैं शुष्क पत्र का चूर्ण औषध रूप से व्यवहार करता हूँ।
कोकड़ में १ से २ तो० तक रस वामक रूप से व्यवहार किया जाता है। शुष्क कर इसकी मूंग के बराबर वटिकाएँ प्रस्तुतकर भी प्रवाहिका में बरती जाती है। पर्याप्त मल प्रवर्तन हेत एक गोली कानी है। इंडियन फार्माकोपिया में इसका पत्र अॉफिशल है। (फा० इं० २ भा० पृ० ४३६)।
डा० नदकारिणा प्रभाव में रन से जड़ श्रेष्ठ है। ये को टमकर ( Laxative) और प्रवाहिका में १५ ग्रेन की मात्रा में उर.म औषध हैं। इनको साधारणतः चर्ण रूप में किंचिद् बबूर निर्यास तथा अफीम १ ग्रेन के साथ मिलाकर व्यवहार करते हैं । शिरोरोग एवं वात वेदना में शिर में इसकी जड़ का प्रलेप करते हैं । कास तथा अन्य उन शिरोविकारों में जिनमें साधारणतः इपिकेक्वाइना व्यवहृत होता है। यह अत्यन्त लाभदायक पाया गया है । अतीसार तथा वाहिका की प्रथमावस्था में भी जब कि ज्वर विद्यमान हो इनको १० ग्रेन की मात्रा में १ श्राउंस जल के साथ तथा उसमें १ ड्राम कीकर का लुभाब और अावश्यकतानुसार । ग्रेन अफ़ीम मिलाकर दिया जा सकता है । यदि विषम अथवा मलेरिया ज्वर हो तो इसके साथ कीनीन (कुनै न) सम्मिलित कर देना चाहिए । श्वासोच्छ वास विकार तथा कुकुरखाँसी (Whooping Cough) की प्राथमिक अवस्था में इसे ५ ग्रेन की मात्रा में दिन में तीन बार अकेले अथवा प्राधा ड्राम जुलेही के शर्यत में श्राधा ग्राउंस जल मिलाकर इसके साथ दिनमें तीन बार सेवन करें । यह रकशोधक तथा परिवर्तक रूप से प्रति प्रख्यात है और आमवात में इसका उपयोग किया, जाता है । यह तिक सुगन्धित तथा उत्तेजक है। यह प्रौपदंशीय श्रामवात में भी प्रयुक्र होता है । स्थानिक रूप से यह प्रशामक है और संधिवात जन्य वेदना निवारणार्थ प्रयोग में प्राता है । ई० मे मे०।
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