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अन्तमूल
अन्तमूल जिनमें इपिकेक्वाइना व्यवहृत होता है, इसका बहुत वर्ष पूर्व से ज्ञान है । ऐसा मालूम होता है उपयोग किया जाता है।
कि इपिके क्वाइना सर्वथा समाप्त हो चुका था इतिहास, गुणधर्म तथा उपयोग–यद्यपि
और डॉक्टर एण्डरसन ने देशी चिकित्सकों को
चिकित्सा में अपनी अपेक्षा अधिकतर सफलता ऐसा प्रकट होता है कि भारतवर्ष के उस प्रांत के निवासी जिसमें अन्तमूल होता है, इसके औष
प्रोप्त करते हुए पाकर उन्होंने सहज पक्षशतशून्य
हृदय से स्वीकार किया कि उनसे शिक्षा ग्रहण धीय गुणधर्म से अति प्राचीन काल से परिचित हैं; तथापि इसके व्यापारिक द्रव्य होने का हमारे ... करने में मुझे कोई लजा नहीं। और उन्होंने उनके पास कोई प्रमाण नहीं और न किसी प्रामा.
रतलाए हुए पौधे को अधिक परिमाण में एक
त्रित करके उनकी जड़ का एक बड़ा गठ्ठा मदरास णिक हिन्दू अथवा इसलामी निघण्टु ग्रन्थों में इसका वर्णन पाया है। किसी किसी ग्रंथ में
को भेजा। वस्तुतः यह हिन्दू मेटिरिया मेडिका भावप्रकाशोत मलाण्ड शब्द इसके पर्याय
(आयुर्वेदीय निघ टु ) का वह द्रव्य है जिसकी स्वरूप लिखा है। भावप्रकाशकार मलाण्ड का
ओर अत्यन्त ध्यान देने की प्रायश्यकता है।
(फ्लोरा इंडिका खं० २, पृष्ट ३४, ३५) गुण इस प्रकार लिखते हैं- "वामनः स्वेदजननः कफनिहरणस्तथा ।" अर्थात् मलारड वाचक,
पेन्सला लिखते हैं -इसकी जड़ श्लेष्मस्वेदजनक और श्लेष्मनिस्सारक है। ये सम्ण
निस्सारक ( कर त्र्य ) तथा स्वेदक प्रभाव के गुण अन्तमूल में विद्यमान हैं । अतः मलाण्ड को
लिए अत्यन्त प्रशस्त है। इसका शीतकवाय
(Infusion ) आधे चाय की चम्मच की अन्तमूल मानना हमें अनुपयुक नहीं प्रतीत
मात्रा में कफ पीड़ित बालकों को वमन कराने के होता।
लिए प्रायः प्रयोग किया जाता है। इपिकेक्वाइना 'रॉक्सबर्ग लिखते हैं -कारोमण्डल तट पर
के कुछ कुछ समान गुण रखने के कारण प्रवा'अन्तमूल की जड़ इपिकेक्वाः ना की प्रतिनिध
हिका जन्य विकारों में यह लाभदायक औषध रूप से प्रायः प्रयोग में लाई जा चुकी है। मैंने
ज्ञात हुई और लोअर इंडिया के युरोपीय प्रायः इसका सेवन कराया और सदा इससे वे
चिकित्सकों द्वारा समय समय पर इसका अत्यंत ही प्रभाव उत्पन्न होते हुए पाया, जिनकी इपिके
लाभदायक प्रयोग किया गया। ( मेनिरिया . क्वाइनाके द्वारा होनेकी धारा की जाती है। दूसरों
मेडिका ऑफ़ इंडिया, २, पृ० ३) से इसके अनुसार प्रभाव होने की भी मुझे
डॅक्टर मा हीदीन शरीफ़-इस देश के प्रायः सूचनाएं मिलीं । सन् १७८०-८३ ई. के
कालवेलियों ( सपेरों) में यह सर्पदंश आदि के ' युद्धकाल में अभाग्यवश हैदरअली द्वारा बन्दीकृत
अगद होने के लिए बहुत प्रसिद्ध है। उनका युरोपियनों के लिए यह अत्यन्त उपयोगी औषध
कहना है कि जब नकुल को सर्प काट लेता है तो सिद्ध हुई । अधिक मात्रा में वामक, थोड़ी मात्रा
वह इसी पौधे की शरण लेता है। देशी लोग में और बारम्बार प्रयोग करने से विरेचक, उभय
इसके बामक प्रभाव से परिचित है. किन्तु वे 'विध यह अत्यन्त प्रभावात्मक सिद्ध हुश्रा।
इसका बहुत कम उपयोग करते हैं। इस पौधे डॉक्टर रसेल ( Dr. Russell) को का कोई अंग बाज़ार में नहीं विकता। उपयोग में मदरास के फिज़िशन जनरल (चिकित्सकों के लाने के लिए इसके एकत्रित करनेकी आवश्यकता अधिनायक) डॉक्टर जे०एण्डरसन (Dr. J. होती है। Anderson) ने सूचित की कि उनको इसके कांड एवं फली सहित उक्र पौधे का सर्वांग युरोपीय तथा देसी दोनों सेनाओं द्वारा प्रवाहिका . वामक है। परन्तु जड़ एवं पत्र केवल सर्वोत्तम में.जिसने उस समय सेनामें संक्रामक रूप धारण ही नहीं, प्रत्युत उपयोग के लिए सरलतापूर्वक की थी, सफलतापूर्ण उपयोग किए जाने का चूर्ण भी किए जा सकते हैं।
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