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अपस्मार
अपस्मार
पैत्तिक अपस्मार में विरेचन और कफज में वमनप्रधान चिकित्सा द्वारा उपचार करें।
वमन विरेचनादि द्वारा सब तरह से शुद्ध हुए तथा पेया पानादि द्वारा संसर्गी करके सम्यक श्राश्वासन किए हुए रोगी को अपस्मार की शांति के निमित्त उचित संशमन औषधों का उपयोग करना आवश्यक है।
बालकों के प्रान्त्रस्थ कृमिविकार या दन्तोद्वेद होने की दशा में उनका उचित उपचार करें। युवाओं के प्रामाशय, प्रांत्र तथा यकृत की क्रिया को ठीक करें। किसी रोग के कारण यदि कोई दाँत खराब हो गया हो तो उसका उचित उपाय करें। मलावरोध न होने दें; क्योंकि इससे साधारणतः रोगका वेग हो जाया करता है । तम्बाकू, कहवा, चाय, मद्य एवं अन्य उत्तेजक औषधों से बिलकुल परहेज कराएँ। अधिक अध्ययन एवं कठिन म से बचें। उद्वेग तथा वासनाओं विशेषकर काम वासनाओं से एवं अन्य दुर्व्यसनों से सहत परहेज करें। चिंता, शोक, भय
और क्रोध प्रभति मनोविकारों का अवलम्बन करना, अपवित्रता तथा विरुद्ध, तीरण, उष्ण यथा मांस और अंडे प्रभुति तथा भारी आहार करना अपस्मारी के लिए अहितकर है। स्त्रियों के अनियमित मासिक स्राव को स्वास्थ्यावस्था पर ले पाएँ ।
ताजी तरकारी और दूध प्रभृति आहार अधिकतर उसकी प्रकृति के अनुकूल, होते हैं। साफ स्वच्छ वायु में रहना, दैनिक शीतल जल से स्नान करना, प्रातः सायं वायु सेवन के लिए जाना, अधिक सोना, पथ्य लघु शीघ्रपाकी श्राहार का सेवन और स्वास्थ्य संरक्षण सम्बंधी नियमों का पालन करना अत्यंत उपयोगी है। अपरञ्च धूपन, अञ्जन, नस्य, शिराव्यधन (सद खोलना), भय दिलाना, बंधन, भय, तर्जन, ताडन, हर्ष, धूम्रपान, धैर्य देना, स्नान, मईन और विस्मय आदि भी उसके लिए हित हैं एवं लाल शालिधान्य का चावल, मूंग, गेहूँ, प्रतन, घृत, कूर्म ( कछुए)का मांस , धन्न रसा, दुग्ध, ब्रह्मी के |
पत्र, वच, पटोल, श्वेत कुष्मांड, वास्तुक, दाहिम, शोभाञ्जन ( सहिजन), नारिकेल, द्राक्षा, श्रामला, परुषक ( फालसा ), तैल, गदहे और घोड़े का मूत्र, प्रकाश जल और हरीतकी ये अपस्मार रोगी के लिए पथ्य एवं अत्यंत हितकारक हैं । चिंता, शोक, भय, क्रोध आदि मनोविकार,अपवित्रता और समं मत्स्य, विरुद्ध अन्न, तीक्ष्ण, उष्ण और भारी भोजन ये अपस्मारी के लिए अहित हैं।
देश काल, अवस्था और प्रकृति आदि का विचार करके आवश्यकतानुसार निम्न योगों में से किसी एक के उचित मात्रा में उपयोग करने से अपस्मार में लाभ होता है :
अपस्मार गजाश, अपस्मारारि, कल्याण चूर्ण, सूतभस्म प्रयोग, वातकुलान्तक, चण्ड भैरव, इन्द्र ब्रह्मवटो, कुष्माण्ड घृत, स्वल्प पञ्च गव्य घृत, वृहत् पञ्चगव्य घृत, महा चैतस घृत, ब्राह्मीघृत और पलङ्कषाद्य तैल, सिद्धार्थक तैल, कुमारी आसव तथा चतुर्मुख रस इत्यादि।
नोट-योग, सेवन-विधि व अनुपान प्रभृति क्रमानुसार दिए जाएँगे।
यूनानी वैद्यक की मत से रोग के मूलभूत कारण को दूर करें। भोजन से पूर्व व पश्चात् लघु म विशेषकर अधोशाखाओं का मईन लाभदायक है। म काल में शिर को गति न दें । वक्ष व उदर से दोनों पिंडलियों तक किसी मोटे वस्त्र से इतना मईन करें जिसमें अवयव राग युक्र हो जाएँ। प्राह्निक मध्यम अवगाहन करें।
चिकित्सा (१) मिश्रित दवाएँनोट-अमिश्रित दवाएँ प्रागे वर्णित हैं।
खमीरह, गावजुबान अम्बरी जद्वार ऊ.द सलीब वाला ५ मा०, अर्क गज़र (गर्ज.रार्क) वा अळ गावजुबान प्रत्येक ६ तो० और शर्बत अबरेशम २ तो० के साथ देना अपस्मार में लाभ
अलीफ़ल उस्तोखुडूस ७ मा० को अर्क मुण्डी
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