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अवपीडन avapidana - हिं० पु० श्रपीडनम् avapidanam-सं० क्ली० नामक नस्य विशेष |
अवपीडन
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के नस्य कर्मों में से एक । शोधन और स्तम्भन भेद से यह दो प्रकार का होता है । निचोड़ कर अर्थात् रस निकाल कर प्रयुक्त होने के कारण अथवा रोगी के नकुओं में टपकाए जाने के कारण इसको अवपीड कहते हैं । यथा - " श्रवपीड्य दीर्यते यस्मात् श्रवपोस्ततः स्मृतः अथवः श्रवपीड्यते यस्मात् स श्रवपीड ।" तीक्ष्ण ओषधियों का कल्क कर उसे निचोड़ कर रस निकालें। इसे अवपीड कहते हैं । यह गले की बीमारियों में प्रशस्त है । प० प्र० ४ ख ०। जो छींक लाने वाली औषध कल्कादि से बनाई जाती है परन्तु उसमें स्नेह नहीं मिलाया जाता है, उसे अवपीड़ वा शिरोविरेचन कहते हैं। यथा-"क कार्य व पीडस्तु ती मूर्ध विरेचनः ।" वा० सू० १६ श्र० गले के रोग, सन्निपात, निद्रा, विषम ज्वर, मनोविकार ( मद, मूर्च्छा, अपस्मार, सन्यास, उन्माद श्रीर भूतोन्माद आदि ) और कृमि अर्थात् नाक में कीड़े पड़जाने - ( वा कृमि जन्य रोगों ) में arrer का प्रयोग किया जाता है। निघ० नस्य चि० । विशेष देखो - नस्य |
अव
पीड
०
अत्रबाहु avabáhaka - हिं० संज्ञा पु अवन्राहुत्रः avabáhuka - सं० प
एक
०
रोग जिससे हाथ की गति रुक जाती हैं । भुज स्तंभ | देखो-अपबाहुक: ( Apabahukah ) अवभासिका, ती avabhasiká, - ní सं० स्त्री० सात त्वचाओं में से एक त्वचा विशेष | यह प्रथम अर्थात् सबसे ऊपर ( शरीर के बाहर ) की त्वचा है और समस्त वर्णों ( कृष्णता, गौरतादि ) को प्रकाश करती है तथा वहीं पाँच प्रकार की पाँच भौतिक छाया तथा चकार के ग्रहण से प्रभा को प्रकाश करती है । यह त्वचा व्रीहि अर्थात् जौ के ( जो बीस भाग हैं उनमें ) अठारह भाग के समान भोटी हैं यही सीप और पद्मकण्टक नामक चर्म रोगों के होने का स्थान है अर्थात् सीप, पद्मकण्टक इसी ऊपर की त्वचा में होते हैं। सु० शा०
४ श्र० ।
'श्रवयवी
अभ्रः avabhratah - सं० श्रि० नतनासिका वाला, चिकिन | ( Flat-nosed. ) श्रम० । श्रवम् avam--हिं० वि० [सं० ] ( १ ) नीच, निंदिन Low, vile, inferior. ) I (२) श्रधम | अंतिम । ( ३ ) रक्षक | श्रवमन्थःavamantha h--सं० पु० श्रवमन्थकः avamanthakah अवमन्य avamantha - हिं० संज्ञा पुं०
एक रोग जिसमें लिंग में बड़ी बड़ी और घनी फुंसियाँ हो जाती हैं ।
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लक्षण - जिसमें बड़ी बड़ी बहुत सी फुंसियाँ बीच से फटी सी हो जाएँ उसे "श्रवमंथ" कहते हैं । यह रोग कफ और रक्त के विकार से होता श्रीर वेदना तथा रोम हर्ष करने वाला होता है । सु० नि० १४ श्र० ।
( २ ) कर्णपाली रोग भेद | सु० सू० १६
श्र० ।
श्रवमनीय avamaniya - हिं० वि० जो वा न हो अथवा जो वमन को रोके ।
श्रमद्द':, -नम् avamarddah, nam--सं० पु ं०, कुली०
श्रवमर्दन] avamardana - हिं० संज्ञा पुं० पांडन | वेदना | दुःख देना । दलन । श्रम० । (See Pidanam.) पीड़ा पहुँचाना । मोटनम् avamoçanam - सं० क्ली० श्रामोदन | मा० नि० वा० व्या० । अभिसोम
avambhison a--सं० काजी, काञ्जिक (Fee kánjka.) श्रवयवः avayavah सं० प० अवयव avayava--f६० संज्ञा प ु०
शरीरावयव,
अंग, देह, शरीर, हस्तपाद श्रादि भाग, शरीर का एक देश । ( A limb, a member )। (२) अंश । भाग | हिस्सा |
अवयव स्थानम् avayava- sthanam सं० क्लो० शरीर ( The body ) । ० निघ० ।
अवयवी avayavi- सं० प ु० पक्षी । ( A bird. ) वै० निघ० ।
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