________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अन्त्रवृद्धि
३५२
अन्त्रवृद्धिः
अन्त्रवृद्धि antra-vriddhi-हिं० संज्ञा स्त्री० अन्त्रवृद्धिः antra-vriddhih-सं० स्त्री० ।
अंत्रांडवृद्धि, प्रांत्रवृद्धि । (Intestinal Hernia, Hernia) फ्रक मिश्राई, नरक मित्र वी-अ० । प्रांत का फत्क-उ० । प्रात उतरना अाँत उतरने का रोग । एक रोग जिसमें आँत का कोई भाग ढीला होकर नाभि के नीचे उतर कर फोते में चला पाता है और फोता फूल जाता है, जिससे अण्डकोष में पीड़ा उत्पन्न होती है। अतएव केवल लक्षणकी ओर ध्यान रखकर प्रायुर्वेद में इसे वृषण विकारांतर्गत मान लिया गया है । परंतु अण्डवृद्धि एक अलग रोग है जिसको डॉक्टरीमें प्रॉर्काइटिस (Orchitis) अर्थात् अण्डप्रदाह कहते हैं। देखो-वृद्धि।
नोट-चिकित्सा प्रणालीय के ग्रंथों के गवेषणा पूर्ण तुलनात्मक अध्ययन से यह स्पष्ट रूप से ज्ञात होता है कि आयुर्वेदीय चिकित्सा ग्रंथों में वृद्धि शब्द का प्रयोग जिन अथों में होता है प्रायः उन्हीं अथों में अँगरेज़ी शब्द हनिया ( Hernia ) और अरबी तत्क का होता है । यद्यपि ये तुल्यार्थक नहीं और न इनका सर्वाश में समान भावों के लिए उपयोग ही होता है, तोभी अल्प सामान्य भेदोंके सिवा इनमें समानता काही अधिक भाव सन्निविष्ट है। अस्तु इनका पूर्णतः समान अथों में प्रयोग करना हमें श्रेष्ठतर जान पड़ता है। पर्ण विवेचन के लिए देखिए वृद्धि।
तीनों चिकित्सा प्रणाली के मत से अंत्रवृद्धि वृद्धि रोग का केवल एक भेद मात्र है।
निदान लक्षण-वातप्रकोपक श्राहार करने, शीतल जल में डुबकी लगाकर नहाने, मल मूत्र के वेग रोकने अथवा मल मूत्र का वेग न होते हुए बलपूर्वक उनके प्रवर्तन करने, बलवान के साथ युद्ध करने, अधिक बोझ उठाने, अत्यंत मार्ग चलने, अङ्गों के टेढ़ा मेढ़ा चलाने इत्यादि कारणों से तथा अन्य वातप्रकोपक कारणों द्वारा प्रकुपित बात तुद्रांतीय अवयवों को विकृत (संकुचित)कर उनको जब अपने स्थान से नीचे लेजाता
है तब वे वंक्षण की संधि में स्थित हो वहाँ गाँठ के समान सूजन को प्रकट करते हैं । इसे ही अन्त्रवृद्धि कहते हैं । फिर वहाँ ग्रंथि रूप से स्थित हो कुछ काल में यह फलकोषों में प्राप्त होती है । इसकी चिकित्सा न करने से प्राध्मान, पीड़ा तथा स्तम्भयुक्र मुष्कवृद्धि उत्पन्न होती है। मा०नि० बृद्धि।
यूँ कि प्रांग्रवृद्धि रोग कभी तो जातज होता है और कभी सम्पादित । प्रस्तु, इसके हेतु भी दो प्रकार के होते हैं। अर्थात् एक जातज और दूसरा संपादित | अब इनमें से प्रत्येक का पृथक पृथक् सविस्तार वर्णन किया जाता है :(१)जातज या सहज अर्थात् पैदायशी कारण
(क) विटप प्रदेश में अण्डमार्ग का बंद न होना, बालकों में अण्ड का वृषण में देर से अथवा कम उतरना ।
(ख) उदर की दीवार तथा मांस पेशियों का जन्म से कमजोर होना और वंक्षण की नाली प्रभृति के छिद्रों का कोमल होना ।
(ग) प्रांत्र के बंधन अथवा उस पर की वसामय झिल्ली का अस्वाभाविक रूप से लम्बा होना भी इस रोग का हेतु है।
(घ ) सहज रूप से उदर की दीवार के कतिपय मांसपेशियों के सम्मुख छिद्र या दरार का रह जाना जिनके मार्ग से अंत्र (वा वसा) प्रभृति ऊपर को उभर आती है। उदरीय वृद्धि का प्रायः यही कारण हुश्रा करता है।
(ङ) जन्म काल में नाभि का विकृत रह जाना, जिससे नाभ्यं वृद्धि होती है।
(२) संपादित हेतु (क) उदर पर चोट का लगना ।
(ख ) शस्त्रक्रिया करने के पश्चात् क्षत का यथार्थ रूप से पूरित न होना।
(ग) अधिफ भार वहन, अधिक भार उठाना विशेषतः उठाकर सीधे खड़ा हो जाना या चलना, क्योंकि उक्क अवस्था में उदर पर जोर पड़ता है, विषमांग प्रवर्तन, खाँसने आदि चेष्टानों से
For Private and Personal Use Only