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अस्थिसंहार
... अस्थिसंहाग
त्रिकोण, पज्ञाकार और संधियुक, होते हैं । प्रत्येक .. जोड़ विनित लम्बाईका( २४ ईव)होता है।
यदि कांड से एक ग्रंथि काटकर मत्तिका से ढाँक , दो जाए तो उससे एक सुदीर्घ लता उत्पन्न हो । जाती है। इसीलिए इसका एक नाम "काण्ड.. वल्ली है। . ... ..
( Stipule ) चन्द्राकार, अखंड; पत्र अत्यंत स्थूल एवं मांसल, विषमवर्सी, साधारणतः त्रिखंडयुक्र, हृदण्डाकार, ( Serrulatid ); वृन्त हस्त्र; फूल छत्र्याकार, लघु वन्तक, श्वेत
व हस्व, पराग केशर ४; दल ४, प्रशस्त; फल . मटरवत् वत्तलाकार, अत्यन्त चस्परा बा कटुक , (. यह उसमें पाए जानेवाले एक कार के अम्ल . के कारण होता है ), एक कोष युक; एक बीज.युक; वोज एकान्तिक,अधाडाकार एक कृष्णधूसर स्पावन कोष से श्रावृत्त होता है; प पहुस्त्र, श्वेत और वर्षा के त में प्रगट होते हैं।
नोट- इसके कांड में भी यही स्वाद होता है। इसकी एव द्राक्षा की अन्य जाति के पौधे --की उक्र चरपराहट खटिव काष्ठेत (Calcium - Ox late.) के सूच्याकार स्फटिकों की विद्य- निता के कारण होती है। पौधे के शुष्क होने पर ये स्फटिक टूट जाते हैं एव' जल में क्वथित करने
से वे दूर हो जाते हैं। ... प्रयोगांश-सर्वांग ( काण्ड, पत्र आदि)। मात्रा-शुष्क चूर्ण, १ रत्ती वा २ मा ।
प्रतिनिधि-पिपरमिण्ट और कृष्णजीरक । अस्थिसंहार के गुणधर्म तथा उपयोग
आयुर्वेदीय मत से.: वात कफ नाशक, टूटी हड्डी का जोड़नेवाला, . गरम, दस्तावर, कृमिनाशक, बवासीरनाशक.
नेत्रों को हितकारी, रूखा, स्वादु, हलका, बल'कारी, पाचक और पित्तकर्ता है। भा० पू०१ भा०। शीतल, वृष्य, वातनाशक और हड्डी को जोड़ने । वाला है । मद०व०१। ...... .. वज्रवल्ली ( हड़जोड़) दस्तावर, रूक्ष, स्वादु ...( मधुर.), उष्णवीर्य, पाक में खट्टा, दीपन, वृष्य ।
एवं बल पद है तथा क्रिमि और बवासीर को नष्ट करता है। अर्श में विशेष रूप से हितकारक श्रीर अग्निदीपक है। चतुर्धारा कांडवली (चौ. धारा हड़जोड़ ) अत्यंत उष्ण और भूत बाधा तथा शूल नाशक है एवं प्राश्मान, वात तिमिर, वातरक, अपस्मार और वायु के रोगों को नष्ट करती है। (वृहन्निघरटुरत्न कर) .अस्थिसंहार के वैद्यकीय व्यवहार
चकदत्त-मनगंग में अस्थिसंहार-संधि. युक अस्थिभग्न में अस्थिसंहार के कांड को पीसकर गोवृत तथा पुग्ध के साथ पान करें। यथा... "प्रवृतेनास्थिसंहार* संधियुक्रेऽस्थिभग्ने च पिवेत्
क्षीरेण मानवः” । (भग्न-चि०) • भ व प्रकाश-वायु प्रशमनार्थ अस्थिसंहार मजा-अस्थिसंहार के डाटा की छालको छीलकर उस लकड़ी का चूर्ण १ मा० तथा छिलकारहित किसी कलाय की दाल ( वातहर होने के कारण माष कलाय. अर्थात् उड़द उत्तम है) प्राध मासे ले दोनों को सिल पर बारीक पीसकर तिल के तेल में इसकी मगौरो बनाकर खाएँ । ये मगौरी प्रत्यंत वात नाशक हैं। प्रथा-.... "कांडं स्वविरहितमस्थिशृङ्खलायामापाद्ध द्विदलमकुञ्चकं तदद्धम् । सम्पिद तदनु ततस्विलस्य , तैले सम्पक्व, वटकमतीव वातहारि ॥" भा० । च० द० अ० पि०, अभ्र शुद्धौ।
... वक्तव्य चरक, राजनिघण्टु तथा धन्वन्तरांयनिघण्टु में अस्थिसंहार का नामोल ख दृष्टिगोचर नहीं होता है । सुश्रुताक्त भानरोग चिकित्सा में , अस्थिसंहार, का पार नहीं है। चक्रदत्तके समान
वृन्द ने भग्नाधिकार में इसका व्यवहार किया है। राजवल्लभ लिखते हैं।
" . "अस्थिभग्नेऽस्थिसहारो हितो बल्योऽनिलाहः।"
अर्थात् हडियों के टूट जाने में अस्थिसंहार • हितकर है एवं यह बल्य और वातोंशक है। ..' यूनानी मतानुसार
प्रकृति-उपण व रूक्ष । स्वरूप-नवीन हरा " और शुष्क भूरा । स्वाद-विकला व किञ्चित तिक एवं कषाय !
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