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इक्कीस शबल दोष kkkk★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★kkkkkkkkkkkkkkkk
५. राजपिंड - राजा के आवास में आहार-ग्रहण।
६. औदेशिक - साधु के उद्देश्य से लाये हुए, खरीदे हुए, उधार लिये हुए, कमजोर से छीने हुए आहार का स्वीकरण।
७. बार-बार प्रत्याख्यान - त्याग करके आहार सेवन। ८. छह मास के भीतर ही एक गण से अन्य गण में गमन या प्रवेश। ९. एक मास के भीतर तीन बार नदी आदि पार करते हुए जल संस्पर्श। १०. एक मास में तीन बार माया युक्त - प्रवंचनापूर्ण व्यवहार। ११. शय्यातर के यहाँ से आहार आदि ग्रहण। १२. जान-बूझकर या आवर्तित रूप में प्राणातिपात करना। १३. जानते-बूझते असत्य प्रयोग। १४. जान-बूझकर अदत्त. - नहीं दी गई वस्तु का आदान या ग्रहण।
१५. पूर्वोक्त रूप में (आवर्तित रूप में) सचित्त भूमि से संस्पृष्ट या निकटवर्ती स्थान पर कायोत्सर्ग।
१६. जानते-बूझते सचित्त जल से स्निग्ध, संलिप्त भूमि पर और सचित्त रज से युक्त भूमि पर खड़े होना (बैठना आदि)।
१७. जान-बूझकर सचित्त शिला पर - पाषाण पर, पत्थर के ढेले पर, दीमक लगे हुए, जीव युक्त काष्ठ पर, अंडों से युक्त, द्वीन्द्रिय आदि जीवों से युक्त आर्द्र मृत्तिका पर एवं मकड़ी के जाले से युक्त स्थान पर खड़ा होना, सोना, बैठना, खड़ा होना। ... १८. आवर्तित रूप में पत्ते, कंद, स्कंध, छाल, कोंपल, पत्ते, फूल, फल, बीज और हरित वनस्पति का भोजन।
१९. एक वर्ष के भीतर दस बार नदी-नाले आदि पार करने के संदर्भ में जल स्पर्श। २०. एक वर्ष के भीतर दस बार प्रवंचना - छलपूर्ण व्यवहार।
२१. आवर्तित रूप में शीतल - सचित्त जल से परिव्याप्त हाथ, लघु पात्र, चम्मच, बड़ा पात्र (भाजन) आदि के प्रयोगपूर्वक अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य आदि का सेवन करना।
ये इक्कीस शबल दोष हैं। श्रमण भगवंतों ने इस - उक्त प्रकार से इक्कीस शबल दोषों का आख्यान किया है।
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