Book Title: Swatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Author(s): Kanaknandi Acharya
Publisher: Dharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
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स्पृष्ट हुए अंजन को ग्रहण करती ? किन्तु वह स्पृष्ट अंजन को नहीं ग्रहण करती है। इससे मालूम होता है कि मन के समान चक्षु इन्द्रिय अप्राप्यकारी है । अत: सिद्ध हुआ कि चक्षु और मन को छोड़कर शेष इन्द्रियों के व्यंजनावग्रह होता है। तथा सब इन्द्रिय और मन के अर्थावग्रह होता है।
पहले अवग्रह के दो भेद बतला आयें हैं- अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह । इनमें से अर्थावग्रह तो पांचों इन्द्रियों और मन इन छहों से होता है किन्तु व्यंजनावग्रह चक्षु और मन इन दो से नहीं होता यह इस सूत्र का भाव है । चक्षु और मन से व्यंजनावग्रह क्यों नहीं होता ? इसका निर्देश करते हुए जो टीका में लिखा है उसका भाव यह है कि ये दोनों अप्राप्यकारी है अर्थात् ये दोनों विषय को - स्पृष्ट करके नहीं जानते हैं। इसलिए इनके द्वारा व्यंजनावग्रह नहीं होता इससे यह अपने आप फलित हो जाता है कि व्यंजनावग्रह प्राप्त अर्थ का ही होता है और अर्थावग्रह प्राप्त तथा अप्राप्त दोनों प्रकार के पदार्थों का होता है । यहाँ यह कहा जा सकता है कि, यदि अप्राप्त अर्थ का अर्थावग्रह होता है तो होओ इसमें बाधा नहीं, पर प्राप्त अर्थ का अर्थावग्रह कैसे हो सकता है ? सो इस शंका का यह समाधान है कि, प्राप्त अर्थ का सर्वप्रथम ग्रहण के समय तो व्यंजनावग्रह ही होता है किन्तु बाद में उसका भी अर्थावग्रह हो जाता है। नेत्र प्राप्त अर्थ को क्यों नहीं जानता ? इसका निर्देश तो टीका में किया ही है। इसी प्रकार शेष इन्द्रियाँ भी कदाचित् अप्राप्यकारी होती है। यह भी सिद्ध होता है । प्रायः पृथ्वी में जिस ओर निधि रखी रहती है उस ओर वनस्पति के मूल का विकास देखा जाता है। इसी प्रकार रसना, घ्राण और श्रोत इन्द्रिय द्वारा भी उसकी सिद्धि हो जाती है।
श्रुतज्ञान का वर्णन, श्रुतज्ञान की उत्पत्ति का क्रम और भेद श्रुतं मतिपूर्वं द्वयनेकद्वादशभेदम् । ( 20 )
Scriptural knowledge is always preceded by sensitive knowledge. It is of two kinds. One of which has twelve and the other many divisions. श्रुतज्ञान मतिज्ञान पूर्वक होता है । वह दो प्रकार का, अनेक प्रकार का और बारह प्रकार का भी है।
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