Book Title: Swatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Author(s): Kanaknandi Acharya
Publisher: Dharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
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है। अथवा वर्तमान मनगत विषय को जो जानता है उसे ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान कहते है।
(2) विपुलमति मनःपर्ययज्ञान- दूसरे के मनगत त्रिकालवर्ती वचन, काय और मनकृत् अर्थ विषय को जानता या कुटिल गत विषय को जानता है उसे विपुलमति मन:पर्ययज्ञान कहते है। तत्त्वार्थ सार में अमृतचंद सूरि ने कहा भी है
परकीयमनःस्थार्थज्ञानमन्यानपेक्षया.। स्यान्मन:पर्ययो भेदौ तस्यर्जुविपुले मती॥(28) '
प्रथम अधिकार(पृ.13) अन्य पदार्थों की अपेक्षा के बिना दूसरे के मन में स्थित पदार्थ को जानना मन:पर्ययज्ञान है। इसके ऋजुमति और विपुल मति इस प्रकार दो भेद
गोम्मट्टसार जीवकाण्ड में आचार्य नेमिचन्द्र ने कहा
_ "मनः पर्ययमान का स्वरूप" चिंतियमचिंतियं वा, अध्दं चिंतियमणेयभेयगयं। मणपज्जवं ति उच्चइ, जं जाणइ तं खु गरलोए॥
__(438 पृ.208) _ जिसका भूतकाल में चिन्तवन किया हो, अथवा जिसका भविष्यत् काल में चिन्तवन किया जायेगा, अथवा अर्धचिन्तित-वर्तमान में जिसका चिन्तवन किया जा रहा है, इत्यादि अनेक भेदस्वरूप दूसरे के मन में स्थित पदार्थ जिसके द्वारा जाना जाय उस ज्ञान को मन:पर्ययज्ञान कहते हैं। यह मन:पर्ययज्ञान मनुष्य क्षेत्र में ही उत्पन्न हे बाहर नहीं। मन:पर्यय के भेद
मणपज्जवं च दुविहं, उजुविउलमदि त्ति उजुमदी तिविहा। उजुमणवयणे काए, गदत्थविसया त्ति णियमेण॥
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