Book Title: Swatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Author(s): Kanaknandi Acharya
Publisher: Dharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
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हो योगी का मन उसे स्पर्श करना नहीं चाहता है।
व्रत के
देशसर्वतोऽणुमहती। (2) Vows are of two kinds. अणुव्रत Partial vow, महाव्रत Full vow,
हिंसादिक एकदेश निवृत्त होना अणुव्रत है और सब प्रकार से निवृत्त होना महाव्रत है।
सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र ही मोक्षमार्ग है एवं इसकी पूर्णता ही मोक्ष है। रत्नत्रय जीव के स्वस्वभाव होने के कारण रत्नत्रय जीव को छोड़कर अन्यत्र नहीं रहता है तथापि कर्मबन्धन के कारण मिथ्यादृष्टि का रत्नत्रय विपरीत रूप में परिणमन करता है अर्थात् मिथ्यादृष्टि, मिथ्याज्ञान एवं मिथ्याचारित्र सहित होता है। जब अन्तरंग बहिरंग सम्पूर्ण कारणों को प्राप्त करता है एवं विरोध कारणों का अभाव होता है तब जीव सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है। सम्यग्दर्शन प्राप्त होने के साथ-साथ उसका ज्ञान सम्यग्ज्ञान हो जाता है। इस प्रकार जीव को चतुर्थगुणस्थान वर्ती अविरत सम्यग्दृष्टि कहा जाता है। गोम्मटसार में कहा भी है।
जो इंद्रियेस विरदो, णो जीवे थावरे तसे वापि। जो सद्दहदि जिणुत्तं सम्माइट्ठी अविरदो सो॥29॥
(गोम्मटसार पृ.22) _जो इन्द्रियों के विषयों से तथा त्रस स्थावर जीवों की हिंसा से विरक्त नहीं है, किन्तु जिनेन्द्र देव द्वारा कथित प्रवचन का श्रद्धान करता है वह अविरत सम्यग्दृष्टि है। इसलिए चरणानुयोग की अपेक्षा-चतुर्थ गुणस्थानवी जीव देश चारित्र या सकल चारित्र से रहित है तथापि करणानुयोग की अपेक्षा सम्यग्दर्शन एवम् सम्यक् चारित्र को घात करने वाली अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ के उपशम अथवा क्षयोपशम या क्षय के कारण चतुर्थ गुणस्थान में भी आंशिक चारित्र है, जिसको सम्यक्त्वाचरण चारित्र कहते हैं। इस चारित्र में अष्टमद आदि का अभाव होता है।
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