Book Title: Swatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Author(s): Kanaknandi Acharya
Publisher: Dharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
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जो संवरेण जुत्तो अप्पट्टपसाधगो हि अप्पाणं। ___ मुणिऊण झादि णियदं णाणं सो संधुणोदि कम्मरयं । (145)
जो कोई शुभ व अशुभ रागादिरूप आम्रव भावों को रोकता हुआ संवर भाव से युक्त है तथा त्यागने योग्य व ग्रहण करने योग्य तत्त्व को समझकर अन्य प्रयोजनों से अपने को हटाकर शुद्धात्मानुभव रूप केवल अपने कार्य को साधने वाला है व जो सर्व आत्मा के प्रदेशों में निर्विकार नित्य, आनन्दमयी एक आकार में परिणमन करते हुए आत्मा को रागादि विभाव भावों से रहित स्वसंवेदन ज्ञान के द्वारा जानकर निश्चल आत्मा की प्राप्तिरूप निर्विकल्परूप ध्यान से निश्चय से गुण-गुणी के अभेद से विशेष भेदज्ञान में परिणमनस्वरूप ज्ञानमई आत्मा को ध्याता है सो परमात्मध्यानका ध्यानेवाला कर्मरूप रज की निर्जरा करता है। वास्तव में ध्यान ही निर्जरा का कारण है ऐसा इस सूत्र में व्याख्यान किया गया है यह तात्पर्य है।
जस्स ण विज्जदि रागो दोसो मोहो व जोगपरिकम्मो।
तस्स सुहासुहडहणो झाणमओ जायए अगणी।(146)
शुद्ध स्वरूप में अविचलित चैतन्यपरिणति सो यथार्थ ध्यान है। इस ध्यान के प्रगट होने की विधि अब कही जाती है
जब वास्तव में योगी, दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय का विपाक पुद्गल कर्म होने से उस विपाक को (अपने से भिन्न ऐसे अचेतन) कर्मों में संकुचित करे, तदनुसार परिणति से उपयोग को व्यावृत करके (उस विपाक के अनुरूप परिणमन में से उपयोग का निवर्तन करके) मोही, रागी और द्वेषी न होने वाले ऐसे उस उपयोग का अत्यन्त शुद्ध आत्मा में ही निष्कंपरूप से लीन करता है, तब उस योगी को जो कि अपने निष्क्रिय चैतन्यरूप स्वरूप में विश्रांत है, वचन-मन-काय को नहीं भाता (अनुभव करता) और स्वकर्मों में व्यापार नहीं कराता उसे-सकल शुभाशुभ कर्मरूप ईंधन को जलाने में समर्थ होने से अग्निसमान ऐसा, परमपुरुषार्थ की सिद्धि का उपाय भूत ध्यान प्रगट होता है।
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