Book Title: Swatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Author(s): Kanaknandi Acharya
Publisher: Dharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
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कोधो भाणो माया लोभो य दुरासया कसायरिऊ।
दोससहस्सावासा दुक्खसहस्साणि पावंति॥(737)
क्रोध, मान, माया और लोभ ये दुष्ट आश्रयरूप कषाय शत्रु हजारों दोषों के स्थान हैं, ये हजारों दुःखों को प्राप्त कराते हैं।
हिंसादिएहिं पंचहिं आसवदारेहिं आसवदि पावं।
तेहिंतु धुव विणासो सासवणावा जह समुद्दे ॥(738) हिंसा आदि आम्रव-द्वार से पाप का आना होता है। उनसे निश्चित ही विनाश होता हैं। जैसे जल के आस्रव से सहित नौका समुद्र में डूब जाती है।
एवं बहुप्पयारं कम्मं आसवदि दुट्ठमट्टविहं।
णाणावरणादीयं दुक्खविवागं ति चिंतेज्जो॥(739) .. इस तरह बहु-प्रकार का कर्म दुष्ट है, जो कि ज्ञानावरण आदि से यह आठ प्रकार का है तथा दुःखरूप फलवाला है ऐसा चिन्तवन करें।
(8) संवरानुप्रेक्षा- जिस प्रकार महार्णव में नाव के छिद्र के नहीं ढके रहने पर क्रमसे झिरे हुए जलसे व्याप्त होने पर उसके आश्रय में बैठे हुए मनुष्यों का विनाश अवश्यम्भावी है और छिद्र के ढंके रहने पर निरुपद्रवरूपसे अभिलषित देशान्तरका प्राप्त होना अवश्यम्भावी है उसी प्रकार कर्मागम के द्वार के ढंके होने पर कल्याण का प्रतिबन्ध नहीं होता। इस प्रकार संवर के गुणों का चिन्तन करना संवरानुप्रेक्षा है। इस प्रकार चिन्तन करने वाले इस जीव के संवर में निरन्तर उत्कुंठता होती है और इससे मोक्षपदकी प्राप्ति होती है। तम्हा कम्मासवकारणाणि सव्वाणि ताणि रुंघेज्जो। इंदियकसायसण्णागारवरागादिआदीणि ॥(740)
(मू.चा..24) इन्द्रियाँ, कषाय, संज्ञा, गौरव, राग आदि ये कर्मास्रव के कारण हैं। इसलिए इन सबका निरोध करें।
रुद्धेषु कसायेसु अ मूलादो होंति आसवा रुद्धा। दुब्भत्तम्हि णिरुद्धे वणम्मि णावा जहं ण एदि॥(741)
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