Book Title: Swatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Author(s): Kanaknandi Acharya
Publisher: Dharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
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ज्ञानार्णव में कहा भी है
आरोप्य
दग्ध्वा
निशितैः पुरग्रामवराकराणि
(28)
आच्छिद्य गृह्णन्ति धरां मदीयां कन्यादिरत्नानि धनानि नारी: । ये शत्रवः संप्रति लुब्धचित्तास्तेषां करिष्ये कुलकक्षदाहम् ॥
(29) सकल भुवन पूज्यं वीर वर्गोपसेव्यं स्वजन धन समृद्धं रत्नरामाभिरामम् । अमितविभवसारं विश्वभोगाधिपत्यं प्रबलरिपुकुलान्तं हन्त कृत्वा मयाप्तम् ॥ (30)
शरोधैर्निकृत्य वैरिव्रजमुद्धताशम् । प्राप्स्येऽहमैश्वर्यमनन्यसाध्यम् ॥
भित्त्वा भुवं जन्तुकुलानि हत्वा प्रविश्य दुर्गाण्यटवीं विलङ्घ्य। कृत्वा पदं मूर्ध्नि मदोद्धतानां मयाधिपत्यं कृतमत्युदारम् ॥ (31)
जलानलव्यालविषप्रयोगैविश्वासभेदप्रणिधिप्रपञ्चैः । उत्साद्य निःशेषमरातिचक्रं स्फुरत्ययं मे प्रबलः प्रतापः ॥ (32).
मनुष्यैः । जगदेकनाथैः ॥
(33)
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इत्यादिसंरक्षणसंनिबद्धं संचिन्तनं यत्क्रियते संरक्षणानन्दभवं तदेतद्रौद्रं प्रणीतं
विषय संरक्षणानन्द रौद्र ध्यानी इस प्रकार विचार करता है - मैं धनुष को चढ़ाकर तीक्ष्ण वाण समूह द्वारा अतिशय प्रबल आशा रखने वाले शत्रुओं के समूह को छेद करके और उनके पुर, गाँव व खानों को जला करके जो ऐश्वर्य दूसरों को अलभ्य है उसे प्राप्त करूँगा । जो शत्रु लोभ युक्त मन से मेरी भूमि को आच्छादित करके कन्या आदि रत्नों धन और दिव्य स्त्रियों को ग्रहण करते है, मैं इस समय उनके कुल रूप वन को भस्म करूँगा । हर्ष है कि मैने अतिशय बलवान् शत्रुओं के समूह को नष्ट करके समस्त संसार से पूजने के योग्य वीर पुरुषों के समूह द्वारा उपभोग करने के योग्य कुटुम्बीजन और धन से वृद्धिंगत, रत्नों व स्त्रियों से रमणीय तथा अपरिमित श्रेष्ठ वैभव
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