Book Title: Swatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Author(s): Kanaknandi Acharya
Publisher: Dharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan

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Page 658
________________ स्थिति नहीं है। तेलोक्कमत्थयत्थो तो सो जिगं णिरवसेसं । सव्वेहिं पज्जएहिं म संपुरणं सव्वदव्वेहिं ।। (2134) पस्सदि जाणदि य तहा तिण्णि वि काले सपज्जए सव्वे । तह वा लोगमसेसं पस्सदि भयवं विगदमोहो । ( 2135 ) तीनों लोकों के मस्तक पर विराजमान वह सिद्ध परमेष्ठी समस्त द्रव्यों और समस्त पर्यायों से सम्पूर्ण जगत को जानते देखते हैं। तथा वे मोह रहित भगवान् पर्यायों से सहित तीनों कालों को और समस्त अलोक को जानते हैं। भावे सगविसयत्थे सूरो जुगवं जहा पयासेइ । सव्वं वितधा जुगवं केवलणाणं पयासेदि । ( 2136) जैसे सूर्य अपने विषयगोचर सब पदार्थों को एक साथ प्रकाशित करता है वैसे ही केवल ज्ञान सब पदार्थों को एक साथ प्रकाशित करता है। कर्मों का क्षय होने के बाद तदनन्तरमूर्ध्वं गच्छत्यालोकान्तात् । (5) After that (liberation from all Karmas the liberated souls go up-wards (right vertically) to the end of (or the universe). तदनन्तर मुक्त जीव लोक के अन्त तक ऊपर जाता है। जीव की स्वाभाविक गति का प्रतिपादन करते हुए आचार्य नेमीचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती द्रव्यों के विभिन्न पहलुओं का संक्षिप्त एवं सारगर्भित प्रतिपादक ग्रन्थ द्रव्य संग्रह शास्त्र में उल्लेख करते है कि "विस्ससोड्ढगई” अर्थात् जीव की स्वाभाविक गति ऊर्ध्वगमन स्वरूप है । अमृतचन्द्र सूरि तत्त्वार्थसार में जीव एवं पुद्गल के स्वभाव का वर्णन करते हुए उल्लेख करते हैं कि ऊर्ध्व गौरव धर्माणो जीवो इति जिनोत्तमैः । अधोगौरव धर्माण: पुद्गला इति चोदितम् ॥ सर्वज्ञ - सर्वदर्शी जिनेन्द्र भगवान ने जीव को ऊर्ध्व गौरव (ऊर्ध्व गुरुत्व) 643 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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