Book Title: Swatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Author(s): Kanaknandi Acharya
Publisher: Dharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
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जीव की स्वाभाविक ऊर्ध्व गति होते हुए भी विरोधात्मक कर्म शक्ति से प्रेरित होकर कर्म संयुक्त संसारी जीव चतुर्गति रूपी संसार में परिभ्रमण कर रहा है, परन्तु जब वह कर्मबन्धनों से मुक्त हो जाता है तब अन्य गतियों में से निवृत्त होकर स्वाभाविक ऊर्ध्व गति से गमन करता है
प्रकृति बन्ध, स्थिति बन्ध, अनुभाग बन्ध, प्रदेश बन्ध से सम्पूर्ण रूप से मुक्त होने के बाद परिशुद्ध स्वतन्त्र शुद्धात्मा तिर्यक् आदि गतियों को छोड़कर . उर्ध्व गमन करता है।
पर्याs ट्ठदि अणुभागप्पदेस बंधेहिं सव्वदो मुक्को। उड्डुं गच्छदि सेसा विदिसा वज्जं गदिं जंति ॥
मुक्त जीव के ऊर्ध्वगमन के कारण पूर्वप्रयोगादसंङ्गत्वाद् बन्धच्छेदात्तथागतिपरिणामाच्च । (6)
1. As the soul is previously impelled,
2. As it is free from ties or attachment,
3. As the bondage has been snapped and
4. As it is of the nature of darting up-wards.
पूर्व प्रयोग से, संग का अभाव होने से, बन्धन के टूटने से और वैसा गमन करना स्वभाव होने से मुक्त जीव उर्ध्वगमन करता है।
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संसारी जीव ने मुक्त होने से पहिले कितनी ही बार मोक्ष की प्राप्ति के लिए प्रयत्न किया है, अतः पूर्व का संस्कार होने से जीव ऊर्ध्वगमन करता है। जीव जब तक कर्मभार सहित रहता है तब तक संसार में बिना किसी नियम के गमन करता है और कर्मभार से रहित हो जाने पर ऊपर को ही गमन करता है। अन्य जन्म के कारण भूत गति जाति आदि समस्त कर्मबन्ध के उच्छेद हो जाने से मुक्त जीव ऊर्ध्वगमन करता है। आगम में जीव का स्वभाव ऊर्ध्वगमन करने वाला बताया है। अतः कर्म नष्ट हो जाने पर अपने स्वाभाविक अवस्था के कारण मुक्तात्मा का एक समय तक ऊर्ध्व गमन होता है।
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