Book Title: Swatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Author(s): Kanaknandi Acharya
Publisher: Dharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan

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Page 660
________________ force is applied to it." अर्थात् एक द्रव्य, जो विराम अवस्था में है, वह विराम अवस्था में रहेगा तथा एक द्रव्य जो सीधी रेखा में गतिशील है, वह गतिशील ही रहेगा, जब तक उस द्रव्य की अवस्था में परिवर्तन करने के लिए कोई बाह्य बल न लगाया जाए। (एक द्रव्य तब तक स्थिर रहता है जब तक बाह्य शक्ति का प्रयोग उसके गतिशील कराने में नहीं होता है तथा एक द्रव्य अविराम गति से एक सीधी रेखा में तब तक चलता रहता है, जब तक उस पर किसी बाह्य शक्ति का प्रभाव नहीं पड़ता है। कोई भी द्रव्य यदि किसी एक दिक् की ओर गति करता है, तो वह द्रव्य उस दिक् में अनन्तकाल तक अविराम, अपरिवर्तित गति से गति करता रहेगा, जब तक कोई विरोधी शक्ति या द्रव्य उस गति का निरोध नहीं करेगा । दिक् अनन्त काल एवम् शक्ति अक्षय होने से, जिस दिक् में एक द्रव्य गति करता है, वह द्रव्य उस दिक् के अनन्तं आकाश की ओर अनन्त काल तक गति करता ही रहता है, परन्तु केन्द्राकर्षण शक्ति, बाह्य भौतिक या जैविक आदि विरोध शक्ति के कारण उस गति में परिवर्तन आ जाता है। जैसे एक गेंद को यदि ऊर्ध्व दिक् में फेंकते है तो वह कुछ समय के पश्चात् नीचे गिर जाती है। इसका कारण यह है कि गेंद को ऊपर फेंकने के लिए जो शक्ति प्रयोग की गई थी, उससे वह ऊपर की ओर उठी थी, परन्तु पृथ्वी की केन्द्राकर्षण शक्ति के कारण उसमें परिर्वतन आया और कुछ समय के बाद उस गेंद की ऊर्ध्व गति में परिवर्तन होकर अधोगति हो गई। एक अन्य उदाहरण- खेत से पक्षी उड़ाने वाली रस्सी के एक यन्त्र विशेष में पत्थर आदि रखकर रस्सी के दोनों छोरों को पकड़कर अपनी ओर घूमाते हैं। रस्सी के साथ-साथ पत्थर भी घूमता रहता है। कुछ समय के बाद रस्सी के एक छोर को छोड़ देते हैं जिससे वह पत्थर छूट कर सीधा दूर जाता है। जिस समय वह व्यक्ति रस्सी के दोनों छोर पकड़कर घूमा रहा था उस समय वह पत्थर उस व्यक्ति की घुमाव शक्ति से प्रेरित होकर आगे भागने का प्रयास करता था, परन्तु दोनों छोर को पकड़कर घुमाने के कारण वह पत्थर रस्सी के साथ-साथ वर्तुलाकार में घूमता रहता था। जब उस व्यक्ति ने रस्सी के एक छोर को . छोड़ दिया तो वह पत्थर उस बन्धन से मुक्त होकर आगे भागा। इसी प्रकार Jain Education International For Personal & Private Use Only 645 www.jainelibrary.org

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