Book Title: Swatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Author(s): Kanaknandi Acharya
Publisher: Dharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan

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Page 633
________________ से अनन्तगुणविशुद्धयोग विशेष का आश्रय लेकर ज्ञानावरणीय की सहायभूत बहुत-सी कर्मप्रकृतियों के बन्ध को रोकता हुआ तथा उन कर्मप्रकृतियों की स्थिति का खण्डन और क्षय करता हुआ श्रुतज्ञानोपयोगवाला वह ध्यानी अर्थ, व्यञ्जन और योग की संक्रान्ति को रोककर एकाग्र निश्चल चित्त हो क्षीण कषाय वैडूर्यमणि के समान निलेप ध्यान धारण कर पुन: नीचे नहीं गिरता है, ज्ञानावरणादि कर्मों का नाश कर 13 वें गुणस्थान में चला जाता है, यह एकत्ववितर्क ध्यान है। यह इसका सार्थक नाम है क्योंकि इसमें एक योग के आधार से श्रुतज्ञान की सहायता से अर्थादि संक्रान्ति न करके ध्यान किया जाता है, इसलिये वितर्क सहित तो है परन्तु वीचार रहित है। इस प्रकार एकत्ववितर्क शुक्ल ध्यान रूपी अग्नि के द्वारा जिसने घातिया कर्म रूपी ईंधन को जला दिया है, प्रज्वलित केवलज्ञान रूपी सूर्य से जो प्रकाशित है, मेघसमूह को भेदकर निकले हुए सूर्य की किरणों के समान दैदीप्यमान है; ऐसे भगवान तीर्थंकर तथा अन्य केवली तीन लोक के ईश्वरों के द्वारा अभिवन्दनीय, अर्चनीय और अभिगमनीय होते हैं तथा वे कुछ कम उत्कृष्ट एक कोटि पूर्वकाल तक विहार करते हैं (जगत् के प्राणियों को धर्म का उपदेश देते हैं)। जब उनकी आयु अन्तमुहर्त शेष रहती है तथा वेदनीय, नाम और गोत्र की स्थिति भी अन्तमुहूर्त शेष रहती है तब सभी मन-वचन योग द्वारा और बादरकाययोग को छोड़कर केवली भगवान सूक्ष्म काययोग का अवलम्बन लेकर सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती ध्यान प्रारम्भ करते हैं, परन्तु जब आयुकर्म अन्तर्मुहूर्त शेष रहता है और शेष तीन कर्मों (गोत्र, वेदनीय, नाम) की स्थिति आयुकर्म से अधिक रहती है तब योगी विशिष्ट आत्मोपयोग वाली परमसमायिकपरिणत विशिष्टकरण महासंवर की कारणभूत शीघ्र ही कर्मों को पचाने वाली (कर्मों की निर्जरा करने वाली) समुदघात किया करते हैं। वह इस क्रिया से शेष कमरेणुओं का परिपाक करने के लिये चार समयों में दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूर्ण अवस्था में आत्मप्रदेशों को पहँचा कर फिर क्रमश: चार ही समयों में उन प्रदेशों का संहरण कर चारों कर्मों की स्थिति, समान कर लेते हैं। इस दिशा में वह फिर अपने शरीर परिमाण हो जाता है। पुनः सूक्ष्मकाययोग से सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाती ध्यान प्रारम्भ करता है। सूक्ष्मकाययोगी के द्वारा इसका 618 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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