Book Title: Swatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Author(s): Kanaknandi Acharya
Publisher: Dharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
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उपशमक, उपशान्तमोह, क्षपक, क्षीणमोह और जिन ये क्रम से असंख्यातगुणी निर्जरा वाले होते हैं। जब तक सम्यग्दर्शन को उपलब्धि नहीं होती तब तक आम्रव और बंध की परम्परा चलती ही रहती है। यह बंध की परम्परा मिथ्यादृष्टि के अनादि से है । उसकी जो निर्जरा होती है वह सविपाक निर्जरा या अकाम निर्जरा है। इसलिए मिथ्यादृष्टि केवल आम्रव और बंध तत्व का कर्त्ता है । सम्यग्दर्शन होते ही जीव के ज्ञान एवं दर्शन में परिवर्तन हो जाता है। जिस अंश में दर्शन - ज्ञान - चारित्र में सम्यक् भाव है उतने अंश में संवर, निर्जरा प्रारम्भ हो जाती है क्योंकि सम्यग्दर्शन- ज्ञान एवं चारित्र आत्मा का स्वभाव है। पुरुषार्थसिद्धियुपाय में कहा है
येनांशेन सुदृष्टिस्तेनांशेनास्य बन्धनं येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं येनांशेत ज्ञानं तेनांशेनास्य बन्धनं येनांशेन रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं येनांशेन चारित्रं तेनांशेनास्य बन्धनं येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं
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जिस अंश में आत्मा के सम्यग्दर्शन है उस अंश में अर्थात् उस सम्यग्दर्शन द्वारा इस आत्मा के कर्म बन्ध नहीं होता है अर्थात् सम्यग्दर्शन कर्म बन्ध का कारण नहीं है । और जिस अंशेसे रागभाव हैं सकषाय परिणाम उस अंश में कर्मबन्ध होता है। जिस अंश में आत्मा के सम्यक ज्ञान है उस अंशेन इस आत्मा के कर्म बंध नहीं है और जिस अंश से इसके राग है उस अंश से इसके कर्मबन्ध होता है । जिस अंश से चरित्र हैं उस अंश से इस आत्मा के कर्मबन्ध नहीं है और जिस अंश से इसके राग भाव है उस अंश से इसके कर्मबन्ध होता है।
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पात्र की अपेक्षा गुणश्रेणी निर्जरा और उसके द्रव्य प्रमाण और काल प्रमाण का वर्णन गोम्मटसार में निम्न प्रकार किया है
नास्ति ।
भवति ॥ (212)
नास्ति ।
अणंत
सम्मत्तप्पत्तीये - सावय विरदे दंसणमोहक्खवगे कषायउवसामगे य
भवति ॥ (213)
नास्ति ।
भवति ।। (214)
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कम्मंसे ।
उवसंते । (66) पृ. 49 गो. जी. काण्ड
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