Book Title: Swatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Author(s): Kanaknandi Acharya
Publisher: Dharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
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उवसमखयमिस्सं वा बोधिं लध्दूण भवियपुंडरिओ। . ‘तवसंजमसंजुत्तो अक्खयसोक्खं तदो लहदि॥(762)
श्रेष्ठ भव्य जीव उपशम, क्षायिक या क्षायोपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त करके जब और संयम से युक्त हो जाता है तब अक्षय सौख्य को प्राप्त कर लेता है।
तम्हा अहमवि णिच्चं सद्धासंवेगविरियविणएहिं।
अत्ताणं तह भावे जह सा बोही हवे सुहरं ॥(763) इसलिए मैं भी श्रद्धा, संवेग, शक्ति और विनय के द्वारा उस प्रकार से आत्मा की भावना करता हूं कि जिस प्रकार से वह बोधि चिरकाल तक बनी रहे।
बोधीय जीवदव्वांदियाइं बुज्झइ हु णव वि तच्चाई। गुणसयसहस्सकलियं एवं बोहिं सया. झाहि॥(764)
बोधि से जीव पुद्गल आदि छह द्रव्य तथा अजीव आदि नव तत्त्व (पदार्थ) जाने जाते है। इस तरह हजारों गुणों से सहित बोधि का सदा ध्यान
करो।
धर्मस्वाख्यातत्वानुप्रेक्षा:- जिनेन्द्र देव ने यह जो अहिंसालक्षण धर्म कहा है, सत्य उसका आधार है, विनय उसकी जड़ है, क्षमा उसका बल है, ब्रह्मचर्य से रक्षित है उपशम की उसमें प्रधानता है, नियति उसका लक्षण है, परिग्रह रहितपना उसका आलम्बन है। इसकी प्राप्ति नहीं होने से दुष्कर्म विपाक से जायमान दुःख को अनुभव करते हुए ये जीव अनादि संसार में परिभ्रमण करते हैं। परन्तु इसका लाभ होने पर नाना प्रकार के अभ्युदयों की प्राप्तिपूर्वक मोक्ष की प्राप्ति होना निश्चित है ऐसा चिन्तन करना धर्मस्वाख्यातत्वानुप्रेक्षा है। इस प्रकार चिन्तन करने वाले इस जीव के धर्मनुरागवश उसकी प्राप्ति के लिए सदा यत्न होता है।
सव्वजगस्स हिदकरो धम्मो तित्थंकरहिं अक्खादो। धण्णा तुं पडिवण्णा विसुद्धमणसा जगे मणुया॥(752)
(मू.चा.पृ.30)
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