Book Title: Swatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Author(s): Kanaknandi Acharya
Publisher: Dharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
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सुखं दुखं वा स्यादिह विहितकर्मोदयवशात्। कुतः प्रीतिस्तापः कुतः इति जिल्पाद्यादि भवेत् ॥ (262) उदासीनस्तस्य प्रगलित पुराणं न हि नवं। समास्कन्दत्येषु स्फुरति सुविदग्धो मणिरिव॥ (263)
(आ.पृ.240) संसार में पूर्वकृत कर्म के उदय से जो भी सुख अथवा दुःख होता है, उससे प्रीति क्यों और खेद भी क्यों, इस प्रकार के विचार से यदि जीव उदासीन होता है- राग और द्वेष से रहित होता है- तो उसका पुराना कर्म तो निजीर्ण होता है और नवीन कर्म निश्चय से बन्ध को प्राप्त नहीं होता है। ऐसी अवस्थाओं में यह संवर और निर्जरा से सहित जीव अत्यन्त निर्मल मणि के समान प्रकाशमान होता है - स्व और पर को प्रकाशित करने वाला केवलज्ञान से सुशोभित होता है। ___ जो साधक होते हैं उनके जीवन में अनेक विपरीत परिस्थितियाँ भी आती है। साधक इन विपरीत परिस्थितियों से घबराकर पलायनवादी नहीं बनता हैं परन्तु उन परिस्थितियों का सामना करता है। कवि ने कहा भी है:__ जीवन में आये आंधी, आये घोर तूफान।
सुमेरु सा अचल रहे, यही साधु पहचान ॥ उत्तर रामचरित में भवभूति ने कहा भी है:व्रजादपि कठोराणि, मृदुनि कुसुमान्यपि।
लोकोत्तराणि चेत्तांसि, को वा विज्ञातुमर्हति॥ . . . कर्त्तव्य पालन, कष्ट सहन में वज्र के समान कठोर परन्तु हृदय से कुसुम से भी कोमल ऐसे महान् पुरुष के हृदय को कौन जान सकता है? भर्तहरि ने कहा भी है - "विपदि धैर्य' अर्थात् विपत्ति में धैर्य रखना महान् पुरुष का लक्षण है। विपत्तियों से अनेक शिक्षा मिलती है, धैर्य बढ़ता है, विवेक जाग्रत होता है, सहनशीलता वृद्धिगत होती है। इसीलिए पूज्यपाद स्वामी ने कहा भी है:
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