Book Title: Swatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Author(s): Kanaknandi Acharya
Publisher: Dharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
View full book text
________________
इस प्रकार जिनके आस्रव रुक गया है और जो तपश्चर्या से युक्त हैं उनके निर्जरा होती है। वह भी देश और सर्व की अपेक्षा से दो प्रकार की कही गयी है।
रूद्धासवस्स एवं तवसा जुत्तस्स णिज्जरा होदि । दुविहाय सा वि भणिया देसादो सव्वदो चेव ।। (746)
( मू.चा. पृ. 27 )
संसार में संसरण करते हुए जीव के क्षयोपशम को प्राप्त कर्मों की निर्जरा जगत में सभी जीवों के होती है और पुनः तप से विपुलं निर्जरा होती है ।
संसारे संसरंतस्स खओवसमगदस्स कम्मस्स । सव्वस्स वि होदि जगे तवसा पुण णिज्जरा विउला ।। (747)
जैसे अग्नि से धमाया गया धातु सन्तप्त हुआ शुद्ध हो जाता है। वैसे ही स्वर्ग के समान ही, जीव तप द्वारा कर्मों से शुद्ध हो जाता है।
554
जह धादू धम्मंतो सुज्झदि सो अग्गिणा दुसंतत्तो । तवसा तहा विसुज्झदि जीवो कम्मेहिं कणयं व॥ (748)
श्रेष्ठ ज्ञानरूपी हवा से युक्त शील, श्रेष्ठ समाधि व संयम से प्रज्वलित हुई तपरूपी अग्नि भवबीज को जला देती है, जैसे कि अग्नि तृण काठ आदि को जला देती है।
णाणवरमारुदजुदो सीलवरसमाधिसंजमुज्जलिदो ।
दहइ तवोभवबीयं तणकट्ठादी जहा अग्गी ।। (749)
Jain Education International
चिरकाल मज्जिदं पि य विहुणदि तवसा रयत्ति णाऊण । दुविहे तवम्मि णिच्चं भावेदव्वो हवदि अप्पा ।। (750)
चिरकाल से अर्जित भी कर्मर तप से उड़ा दी जाती है, ऐसा जानकर दो प्रकार के तप में नित्य ही आत्मा को भावित करना चाहिए ।
णिज्जरियसव्वकम्मो जादिजरामरणबंधणविमुक्को । पावदि सुक्खमणंतं णिज्जरणं तं मणसि कुज्जा ।। (751)
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org