Book Title: Swatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Author(s): Kanaknandi Acharya
Publisher: Dharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
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यहाँ इसे अशुद्ध ऐसा नाम दिया है। सो नाम मात्र का ही भेद है। अर्थ में प्राय: समानता है। वहाँ अशुचि भावना में केवल शरीर आदि सम्बन्धी अपवित्रता का चिन्तन होता है तो यहाँ सर्व अशुभ दुःखदायी वस्तुयें-धन, इन्द्रिय-सुख आदि तथा शरीर आदि सम्बन्धी अशुभपने का विचार किया गया।
(7) आम्रवानुप्रेक्षा- आम्रव इस लोक और परलोक में दुःखदायी है। महानदी के प्रवाह के वेग के समान तीक्ष्ण है तथा इन्द्रिय, कषाय और अव्रत रूप है। उनमें से स्पर्शनादिक इन्द्रियाँ वन गज, कौआ, सर्प, पतंग और हरिण आदि को दुःख रूप समुद्र में अवगाहन कराती हैं। कषाय आदिक भी इस लोक में वध, अपयश और क्लेशादिक दु:खों को उत्पन्न करते हैं, तथा परलोक में नाना प्रकार के दुःखों से प्रज्वलित नाना गतियों में परिभ्रमण कराते हैं। इस प्रकार आम्रव के दोषों का चिन्तन करना आस्रवानुप्रेक्षा है। इस प्रकार चिन्तन करने वाले इस जीव के क्षमादिक में कल्याणरूप बुद्धिका त्याग नहीं होता है, तथा कछुएके समान जिसने अपनी आत्मा को संवृत कर लिया है उसके ये सब आस्रव के दोष नहीं होते हैं।
दुक्खभयमीणपउरे संसारमहण्णवे परमघोरे। जंतू जं तु णिमज्जदि कम्मासवहेदुयं सव्वं ॥(729)
(मू.चा.प.20) दुःख और भय रूपी प्रचुर मत्स्यों से युक्त, अतीव घोर संसार रूपी समुद्र में जीव जो डूब रहा है वह सब कर्मास्रव का निमित्त है।
रागो दोसो मोहो इंदियसण्णा य गारवकसाया।
मणवयणकायसहिदा दु आसवा होंति कम्मस्स(730)
राग, द्वेष, मोह, इन्द्रियाँ, संज्ञायें, गौरव और कषाय तथा मन, वचन, काय ये कर्म के आस्रव होते हैं।
रंजेदि असहकणपे रागो दोसो वि दसदी णिच्चं।
मोहो वि महारिवु जं णियदं मोहेदि सब्भावं॥(731) राग अशुभ-कुत्सित में अनुरक्त करता है। द्वेष भी मित्य ही अप्रीति
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