Book Title: Swatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Author(s): Kanaknandi Acharya
Publisher: Dharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
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11. बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा Rarity of Right path. It is difficult to attain
right belief, knowledge and conduct. 12. धर्मस्वाख्यातानुप्रेक्षा Nature of Right Path. The true nature of
truth i.e. the 3 fold path of real Liberation अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आम्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्मस्वाख्यात का बार-बार चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है।
'अनुचिन्त्यते इति अनुचिन्तन', 'अनुप्रेक्षते इति अनुप्रेक्षा'
अर्थात् वस्तु स्वरूप का, सत्य स्वरूप का, स्व-पर स्वरूप का, अथवा . अनित्यादि स्वभावों का चिन्तवन करना, प्रेक्षण करना, अनुप्रेक्षा है।
अनादि काल से ये जीव स्व-स्वरूप से, सत्य स्वरूप से विमुख होकर मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्ररूप परिणमन करके स्व वस्तु को पर वस्तु एवं पर वस्तु को स्व वस्तु मानता हुआ तथा काम भोग विषय में लिप्त होता हुआ संसार में परिभ्रमण कर रहा है। इसलिए सत्य एवं स्व द्रव्य से अपरिचित एवं असत्य, परद्रव्य में रचापंचा है। कुन्द-कुन्द देव ने कहा भी है
सुदपरिचिदाणु भूया सव्वस्स वि कामभोगबन्धकहा। एयत्तस्सुवलंभो णवरि ण सुलहो विहत्तस्स॥(4)
. (समयपाहुइ) कामभोग (विषयभोग) बंध की कथा, विकथा को यह जीव अनादि काल से अनंतबार सुना परिचित किया एवं अनुभूत किया है इसलिये यह सब विषय वासना अत्यंत सुलभ है। इसलिये अनादि काल से जीव की प्रवृत्ति सहज सरल रूप से बाह्य द्रव्यों के प्रति व विषय वासना के प्रति होती है। परन्तु स्व-तत्त्व, सत्य के बारे में अनादि काल से न सुना, न परिचय किया न अनुभव किया है इसलिये स्व आत्मद्रव्य सबसे अधिक समीप-होते हुए भी अथवा स्वयं ही आत्मद्रव्य स्वरूप होते हुए भी उसका विश्वास, उसका परिज्ञान एवं उसके अनुसार आचरण अत्यन्त दुर्लभ है। अत: यह जीव कर्म संयोग से जो पर्याय विशेष को प्राप्त करता है उस पर्याय को ही स्वरूप मान लेता है और उसी प्रकार पर्यायवान, स्त्री, कुटुम्ब आदि को स्वस्वरूप मान
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