Book Title: Swatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Author(s): Kanaknandi Acharya
Publisher: Dharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
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और मित्र श्मशान से आगे नहीं जाते। धर्म ही मेरा कभी साथ न छोड़ने वाला सदा काल सहायक है। इस प्रकार चिन्तन काना एकत्वानुप्रेक्षा है। इस प्रकार चिन्तन करने वाले इस जीव के स्वजन में प्रीतिका अनुबन्ध नहीं होता और परजनों में द्वेषका अनुबन्ध नहीं होता, इसलिए नि:संगताको प्राप्त होकर मोक्ष के लिए ही प्रयत्न करता है।
सयणस्स परियणस्स य मज्झे एक्को रुवंतओ दुहिदो। वज्जदि. मच्चुवसगदो ण जणो कोई समं एदि॥(700)
(मू.पृ.5) स्वजन और परिजन के मध्य रोग से पीड़ित, दुःखी, मृत्यु के वश हुआ यह एक अकेला ही जाता है, कोई भी जन इसके साथ नहीं जाता।
एक्को करेइ कम्मं एक्को हिंडदि य दीहसंसारे। एक्को जायदि मरदि य एवं चिंतेहि एयत्तं ॥(701)
(5) अन्यत्वानुप्रेक्षा-शरीर से अन्यत्वका चिन्तन करना अन्यत्वानुप्रेक्षा है। यथा बन्धकी अपेक्षा अभेद होने पर भी लक्षण भेद से 'मैं' अन्य हैं। शरीर इन्द्रिय गम्य है, मैं अतीन्द्रिय हूँ। शरीर अज्ञ है, मैं ज्ञाता हूँ। शरीर अनित्य है, मैं नित्य हैं। शरीर आदि अनन्तवाला है और मैं अनाद्यनन्त हूँ। संसार परभ्रिमण करते हुए मेरे लाखों शरीर अतीत हो गये। उनसे भिन्न वह ही मैं हूँ, इस प्रकार शरीर से भी जब मैं अन्य हूँ तब मैं बाह्य पदार्थों से भिन्न होऊँ तो इसमें क्या आश्चर्य ? इस प्रकार मनको समाधान युक्त करने वाले इसके शरीरादिक में स्पृहा उत्पन्न नहीं होती है और इससे तत्त्वज्ञानकी भावनापूर्वक वैराग्य का प्रकर्ष होने पर आत्यन्तिक मोक्ष सुखकी प्राप्ति होती है।
मादुपिदुसयणसंबंधिणो य सव्वे वि अत्तणो अण्णे। इह लोग बंधवा ते ण य परलोगं समं ऐति॥(702)
(मू.चा.पृ.6) माता-पिता और स्वजन सम्बन्धी लोग ये सभी आत्मा से भिन्न हैं। वे इस लोक में तो बांधव है किन्तु परलोक में तेरे साथ नहीं जाते हैं।
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