Book Title: Swatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Author(s): Kanaknandi Acharya
Publisher: Dharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
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बैठता है। पूज्यपाद स्वामी ने कहा भी है
स्वपराध्यवसायेन देहेष्वविदितात्मनाम्।
वर्तते विभ्रमः पुंसां पुत्रभार्यादिगोचरः॥(11)
आत्मा को न जानने वाले बहिरात्मा पुरुषों के शरीर में अपने तथा परायेपन के विचार से पुत्र-स्त्री आदि संबधित भ्रम होता है।
अविद्या संज्ञितस्तस्मात्संस्कारो जायते दृढ़ः।
येन लोकोऽङ्गमेव स्वं पुनरप्यभिमन्यते॥(12) उस ही मिथ्याश्रद्धान से बहिरात्मा जीवों के अविद्या या अज्ञान नामक संस्कार या धारणा अथवा भावना दृढ़ मजबूत हो जाती है। जिस संस्कार या भावना से संसारी-स्त्री पुरुष शरीर को ही फिर भी कालान्तर में भी, अन्यभव में भी अपना मानता रहता है।
देहे स्वबुद्धिरात्मानं युनक्त्येतेन निश्चयात्।
स्वात्मन्येवात्मधीस्तस्माद्वियोजयति देहिनम् ॥(13) इस मिथ्या संस्कार से बहिरात्मा शरीर में अपनी बुद्धि ज्ञान या अपनेपन की मान्यता निश्चय से आत्मा को जोड़ता है। तथा अपने आत्मा में ही अपने आत्मापन की श्रद्धा-भावना या ज्ञान से अपने आत्मा को उस शरीर से पृथक-अलग करता है।
देहेष्वात्मधिया जाताः पुत्रभार्यादिकल्पनाः।
सम्पत्तिमात्मनस्ताभिर्मन्यते हा हतं जगत्॥(14) . . . शरीर में आत्मबुद्धि के कारण पुत्र, पत्नी आदि की कल्पनाएँ बनावटी झूठी मान्यताएं हुई हैं। उन कल्पनाओं से अपनी पुत्र, पत्नी, आदि को सम्पत्ति रूप बहिरात्मा जीव मानता है। हायः इस तरह यह संसारी जनता मारी गई-ठगी
.
मूलं संसारदुःखस्य देह एवात्मधीस्ततः। त्यक्त्वनां प्रविशेदन्तर्बहिरव्यावृतेन्द्रियः॥(15)
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