Book Title: Swatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Author(s): Kanaknandi Acharya
Publisher: Dharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
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(2) उत्तम मार्दव धर्म- जाति आदि मद के आवेश से अभिमान का अभाव होना मार्दव है। उत्तम जाति, कुल, रूप, विज्ञान, ऐश्वर्य, श्रुत, लाभ और वीर्य की शक्ति से युक्त होने पर भी तत्कृत मद का अभाव होना तथा दूसरों के द्वारा परिभव के निमित्त उपस्थित किये जाने पर भी अभिमान नहीं होना उत्तम मार्दव धर्म कहलाता है।
निरभिमानी और मार्दव गुणों से युक्त व्यक्ति पर गुरुओं का अनुग्रह होता है, साधुजन भी उसे साधु मानते हैं, गुरुजनों के अनुग्रह से वह सम्यग्ज्ञानादि का पात्र होता है। अर्थात् निरभिमानी को गुरुओं के अनुग्रह से सम्यग्ज्ञानादि की प्राप्ति होती है और उससे स्वर्ग तथा मोक्षफल की प्राप्ति होती है। मान कषाय से मलिन चित्त में व्रत-शीलादि गुण नहीं रह सकते हैं और मानी को साधुजन छोड़ देते हैं। सर्व विपदाओं की जड़ अहंकार भाव है। (3) उत्तम आर्जव धर्म- योग की सरलता आर्जव है। मन, वचन, काय लक्षण योग की सरलता वा मन, वचन, काय की कुटिलता का अभाव उत्तम आर्जव है।
सरल हृदय में गुणों का वास होता है, गुण मायाचार का आश्रय नहीं लेते। अर्थात् मायाचारी में गुणों का वास नहीं होता। मायाचार से निन्दनीय तिर्यंचादि गति प्राप्त होती है। (4) उत्तम शौच धर्म-प्रकर्षता को, प्राप्त लोभ की निवृत्ति शौच है। आत्यन्तिक लोभ की निवृत्ति शौच है। वा शुचि का (पवित्रता का) भाव वा कर्म उत्तम शौच है। ... शुचि आचार वाले निर्लोभ व्यक्ति का इस लोक में सर्व लोग सम्मान करते हैं। विश्वास आदि उसका आश्रय लेते हैं। अर्थात् निर्लोभ व्यक्ति का सर्व जन विश्वास करते हैं। लोभ से आक्रान्त हृदय में गुण नहीं रहते हैं, लोभी इस लोक (भव) में अचिन्त्य दुःख और परलोक में दुर्गति को प्राप्त होता है। अर्थात् इह, परलोक में लोभी अनेक दुःख भोगता है।
जीवित, आरोग्य, इन्द्रिय और उपभोग के भेद से लोभ चार प्रकार का है। अर्थात् जीवित लाभ, आरोग्य लोभ, इन्द्रिय लोभ और उपयोग लोभ के
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