Book Title: Swatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Author(s): Kanaknandi Acharya
Publisher: Dharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
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'प्रमत्तयोगात्' इस पद की अनुवृत्ति होती है जिसमे यह अर्थ होता है कि प्रमत्त के योग से बिना दी हुई वस्तु ग्रहण करना स्तेय है। गली, कूचा आदि में प्रवेश करने वाले भिक्षु के प्रमत्तयोग तो है नहीं इसलिए वैसा करते हुए स्तेय का दोष नहीं लगता। इस सब कथन का यह अभिप्राय कि बाह्य वस्तु ली जाय या न ली जाय किन्तु जहाँ क्लेशरूप परिणाम के साथ प्रवृत्ति होती है वहाँ स्तेय है। पुरुषार्थसिद्धयुपाय में भी चोरी का लक्षण निम्न प्रकार किया गया हैं
अवितीर्णस्य ग्रहणं परिग्रहस्य प्रमत्तयोगाद्यत्। .... तत्प्रत्येयं स्तेयं सैव च हिंसा वधस्य हेतुत्वात् ॥(102)
जो प्रमाद के योग से बिना दिये हुए परिग्रह का ग्रहण करना है वह चोरी जानना चाहिये और वही हिंसा का कारण होने से हिंसा है।
धनादि बाह्यप्राण हैं
अर्था नाम य एते प्राणा एते बहिश्चरा: पुंसा।
हरति स तस्य प्राणान् यो यस्य जनो हरत्यर्थान् ॥(103) जितने भी धन, धान्य आदि पदार्थ हैं ये पुरुषों के बाह्यप्राण हैं। जो पुरुष जिसके धन, धान्य आदि पदार्थों को हरण करता है वह उसके प्राणों का नाश करता है। हिंसा और चोरी में अव्यप्ति नहीं है
हिंसाया: स्तेयस्य च नाव्याप्ति: सुघट एव सा यस्मात्।
ग्रहणे प्रमत्तयोगो द्रव्यस्य स्वीकृतस्यान्यैः ।।(104) हिंसा की और चोरी की अव्याप्ति नहीं है क्योंकि दूसरों के द्वारा स्वीकार की गई द्रव्य के ग्रहण करने में प्रमादयोग अच्छी तरह घटता है इसलिये हिंसा वहाँ होती ही है।
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