Book Title: Swatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Author(s): Kanaknandi Acharya
Publisher: Dharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
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पयार्यों के भेदों को और औदारिक शरीर आदि पुद्गल भेदों को तथा जीव के एक गति से दूसरी गतिरूप परिणमन को करता है। अर्थात् चित्रकार की तरह वह अनेक कार्यों को किया करता है। नाम कर्म के कारण ही विभिन्न प्रकार वैचित्र्य पूर्ण शरीर के अवयव, इन्द्रियों, शरीर के आकार-प्रकार आदियों का निर्माण होता है, शुभ नाम कर्म के सुन्दर प्रशस्त शरीर आदि की उपलब्धि होती है तथा अशुभ नाम कर्म के उदय से असुन्दर हीनाङ्ग-अधिकाग कि विकलाङ्ग सहित शरीर की प्राप्ति होती है। 7. गोत्र कर्म
संताणकमेणागयजीवायरणस्स गोदमिदिसण्णा।
उच्चं णीचं चरणं उच्चं णीचं हवे गोदं॥(13) कुल की परिपाटी के क्रम से चला आया जो जीव का आचरण उसकी गोत्र संज्ञा हैं, अर्थात् उसे गोत्र कहते है। उस कुल परम्परा में ऊँचा (उत्तम) आचरण हो तो उसे उच्च गोत्र कहते हैं, यदि निंद्य आचरण हो तो वह नीच गोत्र कहा जाता है। जैसे- एक कहावत है कि-शियाल का एक बच्चा बचपन से सिंहनी ने पाला। वह सिंह के बच्चों के साथ ही खेला करता था। एक दिन खेलते हुए वे सब बच्चे किसी जगह में गये। वहाँ उन्होंने हाथियों का समूह देखा। देखकर जो सिंहनी के बच्चे थे वे तो हाथी के सामने हुए लेकिन वह सियाल जिसमें कि अपने कुल का डरपोकपने का संस्कार था हाथी को देखकर भागने लगा। तब वे सिहं के बच्चे भी अपना बड़ा भाई समझ उसके साथ पीछे लौटकर माता के पास आये, और उस सियाल की शिकायत की कि, इसने हमें शिकार से रोका। तब सिंहनी ने उस सियाल के बच्चे से एक श्लोक कहा-जिसका मतलब यह है कि अब हे बेटा। तू यहाँ से भाग जा, नहीं तो तेरी जान नहीं बचेगी। “शूरोसि कृतविधोसी दशनीयोसि पुत्रक यस्मिन् कुले त्वमुत्पन्नो गजस्तत्र न हन्यते। अर्थात् हे पुत्र ! तू शूर-वीर है, विद्यावान है, देखने योग्य (रूपवान) है, परन्तु जिस कुल में तू पैदा हुआ है उस कुल में हाथी नहीं मारे जाते।
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