Book Title: Swatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Author(s): Kanaknandi Acharya
Publisher: Dharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
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जो चेतन का परिणाम कर्म के आस्रव को रोकने में कारण है, उसको निश्चय से भाव संवर कहते हैं और जो द्रव्यास्रव को रोकने में कारण है सो दूसरा अर्थात् द्रव्यंसंवर है।
मिथ्यादर्शन की प्रधानता से जिस कर्म का आस्रव होता है, उसका मिथ्यादर्शन के अभाव में शेष रहे सासादन सम्यक् दृष्टि आदि में संवर होता है- वह कर्म कौन है ? मिथ्यात्व, नपुंसक वेद, नरकायु, नरकगति, एकेन्द्रिय जाति, द्वीन्द्रिय जाति, त्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति, हुण्डक संस्थान, असंप्राप्तासपाटिका संहनन, नरकगति प्रायोग्यानुपूर्वी, आतप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्तक और साधारण शरीर यह सोलह प्रकृति रूप कर्म है। असंयम के तीन भेद है:- अनंतानुबंधी का उदय, अप्रत्याख्यानावरण का उदय, और प्रत्याख्यानावरण का उदय। इसलिये इसके निमित्त से जिस कर्म का आस्रव होता है उसका इसके अभाव में संवर जानना चाहिए। यथाअनन्तानुबन्धी कषाय के उदय से होने वाली असंयम की मुख्यता से आस्रव को प्राप्त होने वाली निद्रानिद्रा, प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनंतानुबंधी क्रोध, अनन्तानुबंधी मान, अनंतानुबंधी माया, अनन्तानुबंधी लोभ, स्त्री वेद, तिर्यंचायु, तिर्यंच गति, मध्य के चार संस्थान, मध्य के चार संहनन, तिर्यंचगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति-दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीच गोत्र इन पच्चीस प्रकृतियों का एकेन्द्रियों से लेकर सासादन सम्यक्दृष्टि गुणस्थान तक के जीव बन्ध करते हैं अतः अनन्तानुबन्धी के उदय से होने वाले असंयम के अभाव में आगे इनका संवर होता है। अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से होने वाले असंयम की मुख्यता से आस्रव को प्राप्त होने वाले अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, अप्रत्याख्यानावरण मान, अप्रत्याख्यानावरण माया, अप्रत्याख्यानावरण लोभ, मनुष्यायु, मनुष्य गति, औदारिक शरीर, औदारिक आंगोपाङ्ग, वज्रवृषभनाराच संहनन और मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी इन दश प्रकृतियों का एकेन्द्रियों से लेकर असंयत सम्यक् दृष्टि गुणस्थान तक के जीव बन्ध करते हैं। अत: अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से होने वाले असंयम के अभाव में आगे इनका संवर होता है। प्रमाद के निमित्त से आस्रव को प्राप्त होने वाले असंयम के अभाव में संवर होता है। जो कर्म प्रमाद निमित्त से आस्रव को प्राप्त होता है, उसका प्रमत्त संयत गुणस्थान के आगे प्रमाद न रहने के कारण संवर जानना चाहिए।
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