Book Title: Swatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Author(s): Kanaknandi Acharya
Publisher: Dharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
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गुण को मोहित करके विपरीत करे वह चारित्र मोहनीय है। (A) दर्शन मोहनीय
सम्मत्त पडिणिबद्धं मिच्छतं जिणवरेहिं परिकहिदं। तस्सोदयेण जीवो मिच्छादिट्ठित्तिणादव्वो॥(68)
(समय सार) It is declared by jina that mityatya karma is adverse to right belief; when that begins to operate the self becomes a wrong believer, so let it be known.
आत्मा के सम्यक्त्व गुण को रोकने वाला मिथ्यात्व कर्म है जिसके उदय से यह जीव मिथ्यादृष्टि हो रहा है।
मिच्छतं वेदंतो, जीवो विवरीयदंसणो होदि। ण य धम्मं रोचेदि हु, महुरं खु रसं जहा जरिदो ॥(17)
(गो. जीव.) उदय में आये मिथ्यात्व का वेदन अर्थात् अनुभव करने वाला जीव विपरीत दर्शन अर्थात् अतएव श्रद्धा से युक्त होता है। वह न केवल अतत्व की ही श्रद्धा करता है, अपितु अनेकान्तात्मक धर्म अर्थात् वस्तु स्वभाव को अथवा मोक्ष के कारणभूत रत्नत्रयात्मक धर्म को भी पसन्द नहीं करता इसमें दृष्टान्त देते हैं जैसे- पित्त ज्वर से ग्रस्त व्यक्ति मीठे दूध आदि रस को पसन्द नहीं करता। उसी तरह मिथ्या दृष्टि को धर्म नहीं रूचता।
मिच्छाइट्ठी जीवो, उवइटें पवयणं ण सद्दहदि। सद्दहदि असब्भावं उवइटुं वा अणुवइलैं॥(18)
_ (गो. जीव) . मिथ्यादृष्टि जीव उपदिष्ट' अर्थात् अहिन्त आदि के द्वारा कहे गये प्रवचन' अर्थात् आप्त आगम और पदार्थ ये तीन, इनका श्रद्धान नहीं करता है। प्रवचन अर्थात् जिसका वचन प्रकृष्ट है ऐसा आप्त, प्रकृष्ट का वचन प्रवचन अर्थात् परमागम, प्रकृष्ट रूप से जो कहा जाता है अर्थात् प्रमाण के द्वारा कहा जाता
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सदा
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