Book Title: Swatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Author(s): Kanaknandi Acharya
Publisher: Dharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
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जिसके पास परिग्रह रहता है वह अधिक लोभी, अधिक शोषक, गर्वी बन जाता है। क्योंकि परिग्रह के कारण उसे धनमद हो जाता है। इसे ही कबीरदास ने कहा है
कनक-कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय।
वे पावे वौराय नर, वे खाये बौराय॥ कनक (धन, सम्पत्ति) कनक (धतुरा, विषाक्त फल) से भी सौ गुनी मादक गुणयुक्त है। क्योंकि कनक (धतुरा) को खाने पर जीव नशायुक्त (पगले) हो जाते हैं परन्तु कनक (धन सम्पत्ति) को प्राप्त करते ही जीव मदयुक्त हो जाता है।
धन सम्पत्ति (परिग्रह) सर्वथा, सर्वदा दुःखदायी है। पूज्यपाद स्वामी ने इष्टोपदेश में कहा भी है
दुरपेनासुरक्ष्येण, नश्वरेण धनादिना। स्वस्थं मन्यो जनः कोऽपि ज्वरानिव सर्पिषा॥(13)
जैसे कोई ज्वरवाला प्राणी घी को खाकर या चिपड़ कर अपने को स्वस्थ मानने लग जाय उसी प्रकार कोई एक मनुष्य मुश्किल से पैदा किये गये तथा जिसकी रक्षा करना कठिन है और फिर भी नष्ट हो जाने वाले हैं. ऐसे धन आदि को से अपने को सुखी मानने लग जाता है।
अर्थस्योपार्जने दुःखमपर्जितस्य च रक्षणे।
आये दुःखं व्यये दुःखं, धिगर्थ दुःखभाजनम्॥ धनं अर्जित करने में दुःख उसकी रक्षा करने में दुःख उसके जाने में दुःख, इस तरह हर हालत में दुःख के कारण रूप धन को धिक्कार हो।
दहनस्तृणकाष्ठसंचयैरपि तृप्येदुदधिर्नदीशतैः। ___न तु कामसुखैः पुमानहो, बलवत्ता खलु कापि कर्मणः॥
यद्यपि अग्नि, घास, लकड़ी आदि के ढेर से तृप्त हो जाय। समुद्र, सैकड़ों नदियों से तृप्त हो जाय, परन्तु वह पुरुष इच्छित सुखों से कभी भी तृप्त नहीं होता। अहो! कर्मों की कोई ऐसी ही सामर्थ्य या जबरदस्ती है।
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