Book Title: Swatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Author(s): Kanaknandi Acharya
Publisher: Dharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
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निरन्तर चिन्तवन करने योग्य चार भावनाएँ मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यानि च सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमानाविनेयेषु। (11) (We must meditate upon the 4 following :) 1. मैत्री Maitri, Benevolence (for) सत्त्वे षु all living beings; 2. प्रमोद, Delight (at the sight of beings) गुणाधिकेषु better qualified
(or more advanced then ourselves on the path of libera
tion; 3. कारूणय Pity, Compassion (for) क्लिश्यमानेषु ihe alllicted; 4. माध्यस्थ Tolernce or indifference (to those who are) अविनयेषु
uncivil or ill-behaved. प्राणीमात्र में मैत्री. गणाधिकों में प्रमोद, क्लिश्यमानों में करूणावृत्ति और अविनेयों में माध्यस्थ भावना करनी चाहिए।
(1) मैत्री:- दूसरों के दुःख की अनुत्पत्ति की अभिलाषा मैत्री भाव है। स्वकीय काय वचन, मन, कृत, कारित और अनुमोदना के द्वारा दूसरे को दुःख न होने देने की अभिलाषा, मित्र का धर्म अथवा कर्तव्य मैत्री है।
(2) प्रमोद :- मुख की प्रसन्नता आदि के द्वारा प्रकट होने वाली अतभक्ति और राग प्रमोद है। मुख की प्रसन्नता, नयनों का आह्लाद, रोमाञ्च का उद्भव, स्तुति, निरन्तर सद्गुणकीर्तन आदि के द्वारा प्रकट होने वाली अन्तरंग की भक्ति और राग तथा विशेष रीति से जो मोद (प्रसन्नता) होता है उसे प्रमोद कहते
हैं।
(3) कारुण्य :- दीनों के प्रति अनुग्रहभाव कारुण्य है। शारीरिक और मानसिक दुःख से दुःखी, दीन (अनाथ) प्राणियों के प्रति अनुग्रहात्मक परिणाम करुणा है और करुणा का भाव या कर्म कारुण्य कहलाता है।
(4) माध्यस्थ्य :- रागद्वेषपूर्वक पक्षपात का अभाव मध्यस्थ्य है। राग और द्वेष से किसी के पक्ष में पड़ना पक्षपात है। उस रागद्वेष के अभाव से मध्य में रहना मध्यस्थ है तथा मध्यस्थ का भाव या कर्म माध्यस्थ्य भाव है।
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