Book Title: Swatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Author(s): Kanaknandi Acharya
Publisher: Dharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
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अपने में, दूसरे में या दोनों में विद्यमान, दुःख, शोक, ताप, आक्रन्दन वध और परिदेवना ये असातावेदनीय कर्म के आस्रव हैं।
दुःख(1) पीड़ालक्षण परिणाम को दुःख कहते हैं। विरोधी पदार्थों का मिलना, अभिलषित (इष्ट) वस्तु का वियोग, अनिष्ट संयोग एवं निष्ठुर वचन श्रवण आदि बाह्य साधनों की अपेक्षा से तथा असातावेदनीय के उदय से उत्पद्यमान पीडालक्षण परिणाम दुःख कहा जाता है। (2) शोक- अनुग्राहक के सम्बन्ध का विच्छेद होने पर वैकल्पविशेष शोक कहलाता है। अनुग्रह एवं उपकार करने वाले जो बन्धु आदि हैं उनका विच्छेद वा वियोग हो जाने पर उसका बार-बार विचार करके जो चिन्ता, खेद और विकलता आदि मोहकर्म विशेष शोक के उदय से मानसिक ताप होता है, वह शोक कहलाता है। (3) ताप- परिवादादि निमित्त के कारण कलुष अन्त:करण का तीव्र अनुशय ताप है। परिभवकारी कठोर वचन के सुनने आदि से कलुष चित्त वाले व्यक्ति के जो भीतर-ही-भीतर तीव्र जलन या अनुशय पश्चाताप के परिणाम होते हैं, उसे ताप कहते हैं। (4) आक्रन्दन- परिताप से उत्पन्न अश्रुपात, प्रचुर विलाप आदि से अभिव्यत्त होने वाला क्रन्दन ही आक्रन्दन है। मानसिक परिताप के कारण अश्रुपात, अङ्गविकार-माथा फोड़ना, छाती कूटना आदि पूर्वक विलाप करना, रूदन करना आदि क्रियायें होती हैं, वह आक्रन्दन है वा उसे आक्रन्दन समझना चाहिये। (5) वध- आयु, इन्द्रिय, बल, श्वासोच्छ्वास आदि का वियोग करना वध है। भवधारण का कारण आयु है। रूप-रसादि, ग्रहण करने का साधन वा निमित्त इन्द्रियाँ हैं। कायादि वर्गणा का अवलम्बन श्वासोच्छ्वास लक्षण प्राण है। इन प्राणों का परस्पर विघात करना, वध कहा जाता है। परिदेवन- अतिसंक्लेशपूर्वक स्व पर अनुग्राहक, अभिलषित विषय के प्रति अनुकम्पा, उत्पादक रूदन परिदेवन है। अतिसंक्लेश परिणामों के अवलम्बन
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