Book Title: Swatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Author(s): Kanaknandi Acharya
Publisher: Dharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
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उपगूहन करने हैं, वे पुरूष उच्च गोत्र कर्म के परिपाक से पर भव में त्रिजगद्-वंद्य उच्च गोत्र कर्म का आश्रय प्राप्त करते हैं अर्थात् तीर्थंकर होते हैं।
अन्तराय कर्म का आम्रव विघ्नकरणमन्तरायस्य । ( 27 )
Karma is caused by disturbing others
The inflow of obstructive 3 in दान Charity लाभ gain, भोग enjoyment of consumable things; and aff making use of their powers.
दानादिक में विघ्न डालना अंतराय कर्म का आम्रव है।
दानादि का विघात करना विघ्न कहलाता है । दानादि अर्थात् दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य । किसी के दान लाभादि में विघ्न उपस्थित करना विघ्न कहलाता है। ज्ञान का प्रतिच्छेद सत्कारोपघात ( किसी के सत्कार में विघ्न डालना) दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य, स्नान, अनुलेपन, गन्ध, माल्य, आच्छादन, विभूषण, शयन, आसन, भक्ष्य, भोज्य, पेय, लेह्य और परिभोग आदि में विघ्न करना, किसी के विभव, समृद्धि में विस्मय करना, द्रव्य का त्याग नहीं करना, द्रव्य के उपयोग के समर्थन में प्रमाद करना, देवता के लिए निवेदित किये गये या अनिवेदित किये गये द्रव्य का ग्रहण करना, ATTIT . अवर्णवाद करना, निर्दोष उपकरणों का त्याग, दूसरों की शक्ति का अपहरण, धर्म का व्यवच्छेद करना, कुशल चारित्र वाले तपस्वी, गुरू तथा चैत्य की व्याघात करना, दीक्षित, कृपण, दीन, अनाथ आदि को दिये जाने वाले वस्त्र, पात्र, आश्रय, आदि में विघ्न करना, परनिरोध, बन्धन, गुह्य अंगच्छेदन, कान, नाक, ओंठ आदि का काट देना, प्राणिवध आदि अन्तराय कर्म के आस्त्रव के कारण हैं ।
पूजा
तपस्विगुरूचैत्यानां पूजालोपप्रवर्तनम् । अनाथदीनकृपणभिक्षादिप्रतिषेधनम्
वधबन्धनिरोधैश्च नासिकाच्छेदकर्तनम् । प्रमादाद्देवतादत्तनैवेद्यग्रहणं
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तथा ॥15611
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