Book Title: Swatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Author(s): Kanaknandi Acharya
Publisher: Dharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
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पूर्वक ऐसा रूदन करना, विलाप करना जिसे सुनकर अपने तथा दूसरे को अनुकम्पा उत्पन्न हो जाय, उसे परिदेवन कहते हैं।
यद्यपि दुःख की ही अनन्त जातियाँ होने से ये सभी दुःख रूप हैं तथापि कुछ मुख्य-मुख्य जातियों का निर्देश किया है। जैसे 'गौ' अनेक प्रकार की होती है और केवल 'गौ' कहने से सबका ज्ञान नहीं हो पाता अत: खण्डी, मुण्डी, शाबलेय, श्वेत काली आदि विशेषों को ग्रहण किया जाता है, उसी प्रकार दुःख विषयक आस्रव के असंख्येय लोकप्रमाण भेद संभव होने से दुःख ऐसा कहने पर विशेष ज्ञान न होने से कुछ विशेष निदर्शन से उसके विवेक (भेद) की प्रतिपत्ति किस प्रकार हो सके, इसलिये शोकादि को पृथक् ग्रहण किया है; जिससे ये सर्व भिन्न-भिन्न सुगृहीत होते हैं, इनमें दुःख का लक्षण
और उसी का विस्तार है, वह सुष्ठु रीति से दु:ख के पर्यायवाची शब्दों को जानने के लिये हैं।
दु:ख, शोक, ताप, आक्रन्दन का ग्रहण दु:ख के विकल्पों का उपलक्षण रूप है। जो उपलक्षण होता है, वह अपने सदृश का ग्राही होता है अत: शोकादि के ग्रहण से असाता वेदनीय के आस्त्रव के कारणभूत अन्य सर्व विकल्पों का संग्रह हो जाता है। अशुभ प्रयोग, परपरिवाद, पैशून्य, अनुकम्पा का अभाव (अदया), परपरिताप, आंगोपाङ्गच्छेद, भेद, ताड़न, त्रासन, तर्जन, भर्त्सन तक्षण, विशंसन, बन्धन, रोधन, मर्दन, दमन, वाहन, विहेड़न, हेपण, शरीर को रूखा कर देना, परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, संक्लेशप्रादुर्भावन, अपनी आयु यदि अधिक हो तो उसका अभिमान, निर्दयता, हिंसा, महारंभ, महापरिग्रह का अर्जन, विश्वासघात, कुटिलता, पापकर्म जीवित्व, अनर्थदण्ड, विषमिश्रण, बाण, जाल, पाश, रस्सी, पिञ्जरा, यन्त्र आदि हिंसा के साधनों का उत्पादन, बलाभियोग शस्त्र देना, और पापमिश्रित भाव इत्यादि भी दुःख शोकादि से गृहीत होते हैं। आत्मा में, पर में और उभय में रहने वाले ये दुःखादि परिणाम असाता वेदनीय के आस्त्रव के कारण होते हैं। तत्त्वार्थसार में कहा भी है
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