Book Title: Swatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Author(s): Kanaknandi Acharya
Publisher: Dharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
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बहुउपकारी होने से उस अग्नि का प्रयत्नपूर्वक शमन किया जाता है अर्थात् अग्नि के शमन करने का प्रयत्न किया जाता है, उसी प्रकार अनेक व्रतशीलों समृद्ध मुनिगण के तप आदि में विघ्न हो जाने पर उस विघ्न का निवारण करना साधुसमाधि है ।
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( 9 ) वैयावृत्य करना :- गुणवानों पर दुःख आने पर निर्दोष विधि से उसको दूर करना वैयावृत्य है। गुणवान (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के धारी) साधुजनों पर आये हुए संकट, रोग आदि आपत्ति को निर्दोष रीति से दूर करना उनकी सेवादि करना बहु उपकारी वैयावृत्य है। (10 से 13 ) अरिहंतादि भक्ति अर्हत्, आचार्य, और प्रवचन में बहुश्रुत भावविशुद्धि युक्त जो अनुराग है, उसका नाम भक्ति है । केवलज्ञान रूपी दिव्य नेत्र के धारी अर्हन्त में, श्रुतज्ञान रूपी दिव्य नेत्र के धारी आचार्य में, परहितप्रवण और स्वसमय एवं परसमय के विस्तार के निश्चय करने वाले बहुश्रुत (उपाध्याय) में तथा श्रुतदेवता के प्रसाद से प्राप्त होने वाले मोक्ष -: - महल में आरूढ़ होने के लिए सोपान रूप प्रवचन ( जिनवाणी) में, भावशुद्धिपूर्वक अनुराग करना भक्ति है । यह भक्ति तीन या चार प्रकार की है।
( 14 ) आवश्यक क्रियाओं को न छोड़ना :- षट् आवश्यक क्रियाओं का यथाकाल प्रवर्तन करना आवश्यक अपरिहाणि भावना है। सामायिक, चतुर्विंशतिसंस्तवन, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग ये छह आवश्यक क्रियाएँ हैं। सर्वसावद्य योगों का त्याग करना तथा चित्त को एकाग्र रूप से ज्ञान में लगाना सामायिक है। चतुर्विंशति तीर्थंकरों का कीर्तन चतुर्विंशतिस्तव है। मन, वचन, काय की शुद्धिपूर्वक खड्गासन या पद्मासन से चार-चार शिरोनति और बारह आवर्तपूर्वक वन्दना होती है। कृत दोषों की निवृत्ति प्रतिक्रमण है। भविष्य में होने वाले दोषों का अपोहन - त्याग करना अर्थात् 'भविष्य में दोष न होने देने के लिए सन्नद्ध होना प्रत्याख्यान है । प्रमितकाल तक शरीर से ममत्व का त्याग करना कायोत्सर्ग है। इन षड़ावश्यक क्रियाओं को यथाकाल बिना नागा किये स्वाभाविक क्रम से करते रहना, उत्सुकता का त्याग नहीं करना अर्थात् उत्सुकतापूर्वक करना आवश्यक अपरिहाणि भावना कहलाती है।
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