Book Title: Swatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Author(s): Kanaknandi Acharya
Publisher: Dharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
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स्वलक्षण की अपेक्षा भेद है।
( 3 ) कारण - अपने कारणों की अपेक्षा भी इनमें भेद हैं जैसे औदारिक नामकर्म के उदय से औदारिक शरीर होता है। वैक्रियिक नामकर्म के उदय से वैक्रियिक शरीर होता है । आहारक शरीर नामकर्म के उदय से आहारक शरीर होता है, तैजस शरीर नामकर्म के उदय से तैजस शरीर होता है और कार्माण नामकर्म के उदय से कार्माण शरीर होता है। इस प्रकार भिन्न-भिन्न नामकर्मों के उदय से ये शरीर होते हैं। अत: इनमें कारणभेद स्पष्ट है।
(4) स्वामित्व
स्वामी के भेद से भी इनमें भिन्नता है- जैसे औदारिक शरीर तिर्यंच और मनुष्यों के होता है। वैक्रियिक शरीर देव नारकियों के होता है तथा किसी-किसी तेजस्काय, वायुकाय और पंचेन्द्रिय तिर्यंच तथा मनुष्यों किसी के होता है।
(5) सामर्थ्य सामर्थ्य की अपेक्षा भी इन शरीरों में परस्पर भिन्नता है। भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय के भेद से औदारिक शरीर का सामर्थ्य दो प्रकार का है। तिर्यंच और मनुष्यों में, सिंह एवं अष्टापद, चक्रवर्ती और वासुदेव आदि में जो शारीरिक शक्ति का तारतम्य देखा जाता है वह भव प्रत्यय है। उत्कृष्ट तपस्वियों के शरीर विक्रिया करने का सामर्थ्य गुण प्रत्यय है।
प्रश्न - शरीर की विक्रिया तो तप का सामर्थ्य है औदारिक शरीर का नहीं ?
उत्तर यद्यपि तप के सामर्थ्य से विक्रिया होती है तथापि औदारिक शरीर के बिना केवल तप के विक्रिया करने के सार्मथ्य. का अभाव है अर्थात् औदारिक शरीर के बिना तपं नहीं हो सकता। वैक्रियिक शरीर में मेरूकम्पन और समस्त भूमण्डल को उलटा पुलटा करने की शक्ति है । आहारक शरीर अप्रतिघाती होता है, वज्रपटल आदि से भी वह नहीं रूकता ।
उत्तर
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प्रश्न वैक्रियिक शरीर में अप्रतिहत सामर्थ्य है। उसका भी वज्रपटलादि से
'अप्रतिघात देखा जाता है ?
यद्यपि वैक्रियिक शरीर भी साधारणतया अप्रतिघाती होता है तथापि
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