Book Title: Swatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Author(s): Kanaknandi Acharya
Publisher: Dharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
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देव एवं नारकी उपपाद जन्म वाले होते हैं। उपपाद जन्म वालों के साथ मनुष्य मिलाने पर तीन गति के जीव हो जाते हैं। इन तीनों गति के अतिरिक्त जो बच जाते हैं वे तिर्यंच गति के जीव होते हैं। एकेन्द्रिय से लेकर गाय, भैंस आदि पंचेन्द्रिय जीव तक तिर्यंच ही है। दो इन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तिर्यंच तक के जो त्रस जीव हैं वे केवल त्रस नाली में रहते हैं परन्तु सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव सम्पूर्ण लोक में रहते हैं। इसलिए तिर्यंच का निवास सम्पूर्ण लोक है। तिर्यंच की परिभाषा गोम्मट्टसार में निम्न प्रकार की गई है
तिरियंति कुडिल भावं, सुविउलसण्णा णिगिट्ठिमण्णाणा।
अच्चंतपावबहुला, तम्हा तेरिच्छया भणिया॥(148)
जिनमें कुटिलता की प्रधानता हो, क्योंकि प्रायः करके सब ही तिर्यंच जो उनके मन में होता है उसको वचन के द्वारा व्यक्त नहीं कर सकते, क्योंकि उनके उस प्रकार की वचन शक्ति ही नहीं है और जो वचन से कहते हैं उसको काय से नहीं करते। तथा जिनकी आहारादि संज्ञा प्रकट हो, और श्रुत का अभ्यास तथा शुभोपयोगादि के न कर सकने से जिनमें अत्यन्त अज्ञानता पाई जाय तथा मनुष्य की तरह महाव्रतादिक को धारण न कर सकने और सम्यग्दर्शन की विशुद्धि आदि के न हो सकने से जिनमें अत्यन्त पाप का बाहुल्य पाया जाय उनको तिर्यंच कहते हैं।
तात्पर्य यह है कि निरूक्ति के अनुसार तिर्यंग गति का अर्थ माया की प्रधानता को बताया है। यथा- "तिर:- तिर्यग्भावं- कुटिलपरिणामं अञ्चन्ति इति तिर्यंच":। मायाप्रधान परिणामों से संचित कर्म के उदय से यह गति(पर्याय) प्राप्त होती है। यहाँ पर जो पर्यायाश्रित भाव हुआ करते हैं वे भी मुख्यतया कुटिलता को ही सूचित करते हैं। उनकी भाषा अव्यक्त होने से वे अपने मनोभावों को व्यक्त करने में असमर्थ रहा करते हैं। प्राय: मैथुनसंज्ञा आदि मनुष्यों की तरह उनकी गूढ़ नहीं हुआ करती। मनुष्यों के समान इनमें विवेक-हेयोपादेय का भेदज्ञान, श्रुताभ्यास, शुभोपयोग आदि भी नहीं पाया जाता। प्रभाव, सुख, द्युति, लेश्या आदि की अपेक्षा से भी वे मनुष्यों से निकृष्ट हैं। महाव्रतादि गुणों को वे धारण नहीं कर सकते। इस गति में जिनका प्रमाण सबसे अधिक है उन एकेन्द्रिय जीवों में तथा असंज्ञि पंचेन्द्रिय पर्यंत त्रस जीवों
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