Book Title: Swatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Author(s): Kanaknandi Acharya
Publisher: Dharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
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इष्ट गति, जाति, शरीर इन्द्रिय विषय आदि का निवर्तक (हेतु) है, वह पुण्य है तथा जो अनिष्ट गति, जाति, शरीर इन्द्रियों के विषय आदि का कारण है वह पाप है। इस प्रकार पुण्यकर्म और पापकर्म में भेद है। इनमें शुभ योग पुण्यास्त्रव का कारण है और अशुभ योग पापास्त्रव का कारण है।
कुन्दकुन्द देव ने कहा भी है
जीवो परिणमदि जदा सुहेण असुहेण वा सुहोअसुहो । सुद्धेण तदा सुद्धो हवदि हि परिणामसब्भावो ॥ (9) ( प्रवचनसार पृ.सं. 19 )
जब यह आत्मा शुभ या अशुभ राग भाव से परिणत होता है, तब जपाकुसुम या तमालपुष्प के लाल या काले रंगरूप परिणत स्फटिक की भांति परिणाम स्वभाव होता हुआ स्वयं शुभ या अशुभ होता है और जब यह शुद्ध अराग (वीतराग) भाव से परिणत होता है शुद्ध होता है तब शुद्ध अराग वीतराग स्फटिक की भांति परिणाम स्वभाव होता हुआ शुद्ध होता है ( उस समय आत्मा स्वयं ही शुद्ध होता है ।)
इस प्रकार जीव के शुभत्व, अशुभत्व और शुद्धत्व सिद्ध होते हैं । तात्पर्य यह है कि वह अपरिणमन स्वभाव, कूटस्थ नहीं है।
देवदजदिगुरूपूजासु चेव दाणम्मि वा सुसीले । उववासादिसु रत्तो सुहोवओगप्पगो अप्पा 11 (69) (पृ.158) देव, यति और गुरू की पूजा में तथा दान में तथा सुशील में और उपवासादिकों में लीन आत्मा शुभोपयोगात्मक है।
ओग दिहि सुह पुण्णं जीवस्स संचय जादि । अहो वा त पावं तेसिमभावे ण चयमत्थि 11 (156) (पृ. 352 ) उपयोग यदि शुभ हो तो जीव के पुण्य संचय को प्राप्त होता है और यदि अशुभ हो तो पाप संचय होता है। उन दोनों के अभाव में संचय नहीं
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