Book Title: Swatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Author(s): Kanaknandi Acharya
Publisher: Dharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
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बर्तन, हाथ के विज्ञान आदि पुरूष की चेष्टा से एक घड़ी, तथा सूर्य के बिम्ब के आने से दिन प्रगट होता है । इत्यादि रूप से पुद्गल द्रव्य की हलन चलन रूप पर्याय को 'परिणाम' कहते हैं। उससे जो प्रगट होता है इसलिये इस व्यवहारकाल को व्यवहार में पुद्गलपरिणाम से उत्पन्न हुआ कहते हैं। निश्चय से यह व्यवहारकाल कालानुरूप निश्चय काल की पर्याय है। एक अणु का दूसरे अणु को उल्लंघकर मंदगति से जाना आदि पूर्वोक्त पुद्गल का परिणाम है- जैसे शीतकाल में विद्यार्थी को अग्नि पढ़ने में सहकारी है तथा जैसे- कुम्हार के चाक के भ्रमण
नीचे की शिला सहकारी है वैसे बाहरी सहकारी कारण कालाणुरूप द्रव्यकाल के द्वारा उत्पन्न होता है इसलिये परिणमन को द्रव्यकाल से उत्पन्न हुआ कहते हैं। व्यवहारकाल पुद्गलों के परिणमन से उत्पन्न होता है इसलिये परिणामजन्य है तथा निश्चयकाल परिणामों को उत्पन्न करने वाला है इसलिये परिणामजनक है। तथा समय रूप सबसे सूक्ष्म व्यवहारकाल क्षणभंगुर है तथा अपने ही गुण और पर्यायों का आधार रूप होने से निश्चय कालद्रव्य नित्य हैं।
कालो त्तिय ववदेसो सम्भावपरूवगो हवदि णिच्चो । उप्पण्णप्पद्धंसी अवरो दीहंतरट्ठाई || (101)
'काल' जो शब्द जगत् में दो अक्षरों का प्रसिद्ध है सो अपने 'वाच्य' को जो निश्चय काल सत्तारूप, उसको बताता है, जैसे 'सिंह' शब्द 'सिंह' के रूप को तथा 'सर्वज्ञ' शब्द सर्वज्ञ के स्वरूप को बताता है। ऐसा अपने स्वरूप को बताने वाला निश्चय कालद्रव्य यद्यपि दो अक्षररूप से तो नित्य नहीं है तथापि काल शब्द से कहने योग्य होने से नित्य है, ऐसा निश्चयकाल जानने योग्य है । व्यवहारकाल वर्तमान एक समय की अपेक्षा उत्पन्न होकर नाश होने वाला है, क्षण-2 में विनाशीक है तो भी पूर्व और आगे के समयों की संतान की अपेक्षा से व्यवहार नय से आवली, पल्य, सागर आदि रूप दीर्घकाल तक रहने वाला भी है। इसमें कोई दोष नहीं है। इस तरह निश्चयकाल नित्य है, व्यवहारकाल अनित्य है ऐसा जानने योग्य है। अथवा दूसरे प्रकार से निश्चय और व्यवहार काल का स्वरूप कहते हैं जो अनादि अनंत है, समय आदि की कल्पना या भेद से रहित है, वर्णादि रहित अमूर्तिक है व कालाणु द्रव्यरूप से आकाश में स्थित है सो निश्चयकाल है, वह ही कालाणुद्रव्य
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