Book Title: Swatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Author(s): Kanaknandi Acharya
Publisher: Dharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
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विस्तार सिद्ध होता है। पुद्गल तो द्रव्य की अपेक्षा से एक प्रदेश मात्र होने
यथोक्त (पूर्व कथित) प्रकार के अप्रदेशी है, तथापि दो प्रदेश आदि (द्व्यणुक आदि) स्कंधों के हेतुभूत तथाविध ( उस प्रकार के) स्निग्ध और रूक्षगुणरूप परिणमित होने की शक्ति रूप स्वभाव के कारण उस पुद्गल के प्रदेशों का ( बहु प्रदेशत्व का उद्भव है। इसलिये पर्यायतः अनेक प्रदेशित्व की भी संभावना होने से पुद्गल द्विप्रदेशत्व से लेकर संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेशत्व भी न्याय युक्त है।
अप्पपदेसविसप्पणसंहारे
(गोम्मटसार जीवकाण्ड पृ. 264)
एक जीव अपने प्रदेशों के संहार - विसर्प की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग से लेकर सम्पूर्ण लोक तक में व्याप्त होकर रहता है।
लोगस्स असंखेज्जदिभागप्पहुदिं तु सव्वलोगोत्ति । वावडो ftat 11(584)
आत्मा में प्रदेश संहार - विसर्पत्व गुण है। इसके निमित्त से उसके प्रदेश : संकुचित तथा विस्तृत होते हैं, इसलिये एक क्षेत्र शरीर प्रमाण की अपेक्षा अंगुल के असंख्यातवें भाग से लेकर हजार योजन तक का होता है। इसके आगे समुद्घात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग, संख्यातवें भाग, तथा सम्पूर्ण लोक प्रमाण भी होता है।
धर्म और अधर्म द्रव्य का उपकार व लक्षण गतिस्थित्युपग्रह धर्माधर्मयोरुपकारः । (17)
जीवानाम् पुद्गलानाम् च गतिस्थित्युपग्रहौ धर्माधर्मयोरुपकारो भवति ।
The function of Dharma and Adharma is to support respectively the motion and rest of souls and matter.
गति और स्थिति में निमित्त होना यह क्रम से धर्म और अधर्म द्रव्य का उपकार है।
इस विश्व में जीव एवं पुद्गल गति-शक्ति युक्त हैं अर्थात् ये दोनों ही द्रव्य एक स्थान से दूसरे स्थान को गमन करते हैं। इन दोनों की गति सहित स्थिति भी होती है। गति सहित स्थिति करने के लिए दोनों समर्थ होते हुए
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