Book Title: Swatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Author(s): Kanaknandi Acharya
Publisher: Dharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
View full book text
________________
से अधिक तीन से अधिक सात सागरोपम, साधिक सात से अधिक सात सागरोपम, साधिक नौ से अधिक सात सागरोपम, साधिक ग्यारह से अधिक सात सागरोपम, तेरह से अधिक सात सागरोपम और पन्द्रह से अधिक सात सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति हैं। 'तु' शब्द का अर्थ है कि पूर्व सूत्र में कथित 'अधिके' शब्द का सम्बन्ध चार युगल (12वें स्वर्ग, सहस्रार) के साथ करना चाहिए। उसके आगे के स्वर्गों में आयु सागरों से कुछ अधिक नहीं है। यथा - ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर स्वर्ग मे देवों की आयु कुछ अधिक दस सागर, लान्तव और कापिष्ट स्वर्ग में कुछ अधिक चौदह सागर, शुक्र-महाशुक्र स्वर्ग में कुछ अधिक सोलह सागर, शतार सहस्रार में कुछ अधिक अठारह सागर, आनत-प्राणत में बीस सागर और आरण-अच्युत स्वर्ग में बावीस सागर की उत्कृष्ट स्थिति है।
कल्पातीत देवों की आयु आरणाच्युतादूर्ध्वमेकैकेन नवसु ग्रैवेयकेषु विजयादिषु सर्वार्थसिद्धौ च।
(32) Above Arana and Achyuta in the 9 Graiveyakas (it is) more and more by one sagara (i.e. it is 23-31 sagaras respectively.) In the 9 Anudisas, (it is 32 sagaras and ) in Vijaya, itc. (in the 5 Anuttaras it is 33 sagarags. But) in (the last Anuttara i.e. ) Sarvarthasiddthi, (it is never less than 33 sagaras .) आरण अच्युत के ऊपर नौ ग्रैवेयक में से प्रत्येक में नौ अनुदिश में चार विजयादिक में एक-एक सागर अधिक उत्कृष्ट स्थिति हैं। तथा सवार्थसिद्धि में पूरी तैंतीस सागर स्थिति हैं। पूर्व सूत्र से अधिक पद' की अनुवृत्ति होती है, इसलिए यहाँ इस प्रकार सम्बन्ध करना चाहिए कि एक-एक सागर अधिक है।
प्रत्येक ग्रैवेयक में एक-एक सागर अधिक उत्कृष्ट स्थिति है इस बात का ज्ञान कराने के लिए 'नव' पद का अलग से ग्रहण किया है। यदि ऐसा न करते तो सब ग्रैवेयक में एक सागर अधिक स्थिति ही प्राप्त होती। 'विजयादिषु'
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org