Book Title: Swatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Author(s): Kanaknandi Acharya
Publisher: Dharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
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Akasa) are one continuum each i.e., Indivisible wholes.
आकाश तक एक-एक द्रव्य है।
इस अध्याय के प्रथम सूत्र में वर्णित धर्म, अधर्म, आकाश एवं पुद्गल में से आकाश पर्यन्त अर्थात् धर्म, अधर्म और आकाश एक-एक द्रव्य है। धर्म द्रव्य लोकाकाश व्यापी होते हुए भी असंख्यात प्रदेशी एक ही द्रव्य है। इसी प्रकार अधर्म द्रव्य भी लोकाकाश व्यापी असंख्यात प्रदेश वाला एक अखण्ड द्रव्य है। लोक-अलोकव्यापी आकाश असंख्यात प्रदेश वाला एक अखंड द्रव्य है।
गति, स्थिति आदि परिणामवाले विविध जीव-पुद्गलों की गति आदि में निमित्त होने से भाव की अपेक्षा, प्रदेश भेद से क्षेत्र की अपेक्षा तथा काल भेद से काल की अपेक्षा धर्म और अधर्मद्रव्य में अनेकत्व होने पर भी धर्मादि द्रव्य, द्रव्य की अपेक्षा अखण्ड एक एक ही द्रव्य हैं। अवगाह्य अनेक द्रव्यों की अनेक प्रकार की अवगाहना के निमित्त से भाव की अपेक्षा आकाश में अनन्तता होने पर भी द्रव्य की अपेक्षा आकाश एक ही है। जीव और पुद्गल की तरह धर्म, अधर्म और आकाश अनेक नहीं है और न जीव एवं पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश की तरह एक हैं। यदि जीव और पुद्गल को धर्म, अधर्म और आकाश के समान एक-एक द्रव्य माना जाएगा तो प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने वाले क्रिया कारक का और इष्ट अनुमान सिद्ध संसार-मोक्ष की क्रिया के विस्तार का विरोध आयेगा। अर्थात् अखण्ड एक द्रव्य के न तो क्रिया कारक का भेद होगा अर्थात् सबकी क्रिया एक सी होगी। यह चटाई पर बैठा है, वृक्ष से पत्ते गिर रहे हैं, इत्यादि भेद नहीं होगा और न संसार और मोक्ष की क्रिया का विस्तार होगा। (रा.वा.पृ. 48)
जीवा अणंतसंखाणंतगुणा पुग्गला हु दत्तो दु। धम्मतियं एक्केक्कं, लोगपदेसप्पमा कालो॥
(588 गो.जी.पृ.266) जीव द्रव्य अनन्त हैं। उससे अनन्ते गुणे पुद्गल द्रव्य हैं। धर्म अधर्म आकाश ये एक-एक द्रव्य हैं, क्योंकि ये प्रत्येक अखण्ड एक-एक हैं। तथा लोकाकाश के जितने प्रदेश हैं उतने ही काल द्रव्य हैं।
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