Book Title: Swatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Author(s): Kanaknandi Acharya
Publisher: Dharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
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नारकी निरन्तर अशुभतर लेश्या, परिणाम, देह, वेदना और विक्रिया वाले होते हैं। नारकी की परिभाषा
ण रमंति जदो णिच्चं, दव्वे खेत्ते य काल-भावे य। अण्णोण्णेहिं य जम्हा, तम्हा ते णारया भणिया॥
(147) जीवकाण्ड जो द्रव्य क्षेत्र काल भाव में स्वयं तथा परस्पर में प्रीति को प्राप्त नहीं होते उनको नारत (नारकी) कहते हैं।
शरीर और इन्द्रियों के विषयों में, उत्पत्ति शयन विहार उठने, बैठने आदि के स्थानमें, भोजन आदि के समय में अथवा और भी अनेक अवस्थाओं में जो स्वयं अथवा परस्पर में प्रीति (सुख) को प्राप्त न हों उनको नारत कहते हैं। इस गाथा में जो 'च' शब्द पड़ा है उससे इसका दूसरा भी निरूक्ति - सिद्ध अर्थ समझना चाहिये। अर्थात् जो नरकगतिनामकर्म के उदय से हों उनको, अथवा नरान् - मनुष्यों को कायन्ति - क्लेश पँहुचावें उनको नारक कहते हैं। क्योंकि नीचे सातों ही भूमियों में रहने वाले नारकी निरन्तर ही स्वाभाविक शारीरिक मानसिक आगन्तुक तथा क्षेत्रजन्य इन पाँच प्रकार के दु:खों से दुःखी रहते हैं। लेश्या की परिभाषा
लिंपइ अप्पीकीरइ, एदीए णियअप्पुण्णपुण्णं च।
जीवो त्ति होदि लेस्सा लेस्सागुणजाणयक्खादा॥(489) .. लेश्या के गुण को- स्वरूप को जानने वाले गणधरादि देवों ने लेश्या का स्वरूप ऐसा कहा है कि जिसके द्वारा जीव अपने को पुण्य और पाप से लिप्त करे, = पुण्य और पाप के अधीन करे उसको ‘लेश्या' कहते हैं।
लेश्या दो प्रकार की है - द्रव्यलेश्या और भावलेश्या। द्रव्यलेश्या शरीर के वर्णरूप और भावलेश्या जीव के परिणामस्वरूप
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