Book Title: Swatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Author(s): Kanaknandi Acharya
Publisher: Dharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
View full book text
________________
कोई प्रश्न कर सकता है कि आभियोग्य जाति के देव इसी प्रकार कार्य सतत् क्यों करते हैं ? इसका उत्तर आचार्य ने इस प्रकार दिया है"कर्मफलविचित्रभावाच्च कर्माणांहि फल वैचित्र्येण पच्यते ततस्तेषां गति परिणतिमुखेनैव कर्मफलमववोद्धव्यम्”। अर्थात् कर्मों के फल की विचित्रता से अभियोग्य देव विमानों को वहन करके नित्य गमन करते हैं। आभियोग्य देवों के पूर्वोपार्जित कर्मों का उदय ऐसा ही है, जिससे इन्हें विमानों को वहन करके ही अपने कर्मों को भोगना पड़ता है। सूर्य, चन्द्र आदि विमान अनादिकाल से आकाश में स्वयं अवस्थित हैं। विमान को आकाश में किसी ने धारण नहीं किया हैं। या किसी केन्द्राकर्षण (gravitation) गुरूत्वाकर्षण शक्ति के द्वारा परस्पर आकर्षण के द्वारा आकाश में स्थित नहीं है। केन्द्राकर्षण शक्ति के द्वारा भी ज्योतिषगण आकाश में भ्रमण एवं परिभ्रमण नहीं करते हैं। यदि केन्द्राकर्षण शक्ति के द्वारा परस्पर आकर्षित होते, तब समस्त आकाशीय पिण्ड (ज्योतिष्क) आकर्षित होकर क्यों एक स्थान में सम्मिलित नहीं हो जाते? जैसे- वृहत् चुम्बक अपने चुम्बकीय क्षेत्र में रहने वाले छोटे-छोटे लोह खण्डों को आकर्षित करके स्वयं के पास खींच लेता है इसी प्रकार,वृहत् आकाशीय पिण्ड भी अपनी केन्द्राकर्षण शक्ति के माध्यम से अन्य आकाशीय पिण्डों को अपने पास खींच लेता और समस्त आकाशीय पिण्ड एक ही विशालकाय आकाशीय पिण्ड बन जाता। यदि वृहत् आकाशीय पिण्ड क्षुद्र आकाशीय पिण्ड को अपनी केन्द्राकर्षण शक्ति के द्वारा आकर्षित करके अपने चतुःपार्श में परिभ्रमण कराता, तब क्षुद्र आकाशीय पिण्ड का गति पथ गोलाकृति होना चाहिए था, क्योंकि केन्द्राकर्षण शक्ति समस्त दिशा में समान है, किन्तु विज्ञान की अपेक्षा समस्त आकाशीय पिण्ड का गति पथ दीर्घवृत्ताकार है। पुच्छलतारा का गति पथ अत्यन्त दीर्घवृत्ताकार है। वृहत् आकाशीय पिण्ड छोटे आकाशीय पिण्ड को आकर्षित करता है, किन्तु छोटे आकाशीय पिण्ड दूर अपशरण होने के कारण वृहत् आकाशीय पिण्ड के पास नहीं आते हैं। अन्य आकाशीय पिण्ड के आकर्षणों के कारण उस पिण्ड को एक स्थान में स्थिर होकर रहना चाहिये था। किंतु वह परिभ्रमण क्यों एवं कैसा करता है ? पृथ्वी आकार में गेंद के समान गोल है एवं यह घूमती है। इस भ्रमपूर्ण मान्यता का खण्डन आचार्य विद्यानंदी जी ने 'तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक' में आधुनिक विज्ञान की उत्पत्ति के
245
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org