Book Title: Swatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Author(s): Kanaknandi Acharya
Publisher: Dharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
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हुआ कि इनके अतिरिक्त और जितने जीव होते हैं वे असंज्ञी है। नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने गोम्मट्टसार में संज्ञी मार्गणा में इसका वर्णन निम्न प्रकार से किया है
गोइंदियआवरणखओवसमं तज्जबोहणं सण्णा । सा जस्स सो दु सण्णी इदरो सेसिंदिअवबोहो ॥
नोइन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम को या तज्जन्य ज्ञान को संज्ञा कहते हैं। यह संज्ञा जिसके हो उसको संज्ञी कहते हैं । और जिनके यह संज्ञा न हो किन्तु केवल यथासम्भव इन्द्रियजन्य ज्ञान हो उनको असंज्ञी कहते हैं।
संज्ञी असंज्ञी की पहचान के लिए चिन्ह :
सिक्खाकिरियुवदेसालावग्गाही
मणोवलंबेण । जो जीवो सो सण्णी तव्विवरीओ असण्णी दु 11 (661 ) हित का ग्रहण और अहित का त्याग जिसके द्वारा किया जाए उसको 'शिक्षा' कहते हैं । इच्छापूर्वक हाथ पैर के चलाने को 'क्रिया' कहते हैं । वचन अथवा चाबुक़ आदि के द्वारा बताये हुए कर्त्तव्य को 'उपदेश' कहते हैं। और श्लोक आदि के पाठ को आलाप कहते हैं ।
जो जीव इन शिक्षादि को मन के अवलम्बन से ग्रहण = धारण करता है उसको संज्ञी कहते हैं। और जिन जीवों में यह लक्षण घटित न हो उसको असंज्ञी कहते हैं ।
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मीमंसदि जो पुव्वं कज्जमकज्जं च तच्चमिदरं च । सिक्खदि णामेणेदि य समणो अमणो य विवरिदो ॥
जो जीव प्रवृत्ति करने से पहले अपने कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य का विचार करें तथा तत्त्व और अतत्त्व का स्वरूप समझ सके, और जो नाम रखा गया हो उस नाम के द्वारा बुलाने पर आ सके, उन्मुख हो या उत्तर दे सके उसको समनस्क या संज्ञी जीव कहते हैं। और इससे जो विपरीत है उसको अमनस्क या असंज्ञी कहते हैं।
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