Book Title: Swatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Author(s): Kanaknandi Acharya
Publisher: Dharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
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पर्याप्ति के योग्य पुद्गल वर्गणाओं के ग्रहण करने को 'आहार' कहते हैं । ( यहाँ आहार शब्द भोजन ग्रहण अर्थ में नहीं है) जिन जीवों के इस प्रकार
आहार नहीं होता वे अनाहारक कहलाते हैं। किन्तु कामार्ण शरीर के सद्भाव में कर्म के ग्रहण करने में अन्तर नहीं पड़ता। जब यह जीव उपपाद क्षेत्र के प्रति ऋजुगति में रहता है तब वह आहारक होता है। बाकी के तीनों समयों अनाहारक होता है। जीव एक समय दो समय और तीन समय तक अनाहारक होता है।
जन्म के भेद संमूर्च्छनगर्भोपपादा जन्म: । ( 31 )
Birth if of 3 kinds
संमूर्च्छन Spontaneous generation
गर्भ Uterine birth
उपवाद Instantaneous rise.
संमूर्च्छन गर्भ और उपपाद ये (तीन) जन्म हैं।
सम्पूर्ण विश्व के अनंतानंत जीव मुख्यतः तीन रूप से जन्म ग्रहण करते हैं। (1) सम्मूर्च्छन (2) गर्भ (3) उपपाद ।
1. सम्मूर्च्छन जन्म - तीनों लोकों में ऊपर, नीचे और तिरछे देह का चारों ओर से मूर्च्छन अर्थात् ग्रहण होना सम्मूर्च्छन है । इसका अभिप्राय है चारों ओर से पुद्गलों का ग्रहण कर अवयवों की रचना होना । एकेन्द्रिय से लेकर चतुरन्द्रिय तक के जीवों का जन्म सम्मूर्च्छन ही होता है ।
. 2. गर्भ जन्म - स्त्री के उदर में शुक्र और शोणित के परस्पर गरण अर्थात् 'मिश्रण को गर्भ जन्म कहते हैं।
3. उपपाद जन्म- प्राप्त होकर जिसमें जीव हलन चलन करता है उसे उपपाद कहते हैं । उपपाद यह देव और नारकियों के उत्पत्ति स्थान विशेष की संज्ञा है । संसारी जीवों के ये तीनों जन्म के भेद हैं, जो शुभ और अशुभ परिणामों निमित्त से अनेक प्रकार के कर्म बँधते हैं, उनके फल हैं।
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