Book Title: Swatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Author(s): Kanaknandi Acharya
Publisher: Dharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
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की वन्दना के लिए भी आहारक-ऋद्धिवाले छटे गुणस्थानवर्ती प्रमत्त मुनि के आहारक शरीर नामकर्म के उदय से यह शरीर उत्पन्न हुआ करता है। आहारक शरीर का स्वरूप
उत्तम अंगम्हि हवे, धादुविहीणं सुहं असंहणणं। .
सुह संठाणं धवलं, हत्थपमाणं पसत्थुदयं ॥(237)
यह आहारक शरीर रसादिक धातु और संहननों से रहित तथा समचतुरस्त्र संस्थान से युक्त एवं चन्द्रकांत मणि के समान श्वेत और शुभ नामकर्म के उदय से शुभ अवयवों से युक्त हुआ करता है। यह एक हस्तप्रमाण वाला
और आहारक शरीर आदि प्रशस्त नामकर्मों के उदय से उत्तमांग-शिर में से उत्पन्न हुआ करता है। आहारक शरीर के जघन्य और उत्कृष्ट प्रमाण
अव्वाघादी अंतोमुत्तकालट्ठिदी जहण्णिदरे। पज्जत्तीसंपुण्णे मरणं पि कदाचि संभवई ॥(238)
यह आहारक शरीर दोनों ही तरफ से व्याघात रहित है। न तो इस शरीर के द्वारा किसी भी अन्य पदार्थ का व्याघात होता है और न किसी दूसरे पदार्थ के द्वारा इस आहारक शरीर का ही व्याघात हुआ करता है; क्योंकि इसमें यह सामर्थ्य है- यह इतना सूक्ष्म हुआ करता है कि वज्रपटल को भी भेद कर जा सकता है। इसकी जघन्य और उत्कृष्ट दोनों ही प्रकार की स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही है। आहारक शरीर पर्याप्ति के पूर्ण होने पर कदाचित् आहारक ऋद्धिवाले मुनि का मरण भी हो सकता है। आहारक काययोगका निरुक्ति सिद्ध अर्थ
आहरदि अणेणमुणी, सुहमे अत्थे सयस्स संदेहे। गत्ता केवलिपासं तम्हा आहारगो जोगो॥(239)
छट्टे गुणस्थानवर्ती मुनि अपने को संदेह होने पर इस शरीर के द्वारा केवली के पास में जाकर सूक्ष्म पदार्थों का आहरण (ग्रहणला है इसलिए इस शरीर के द्वारा होने वाले योग को आहारक काययोगका
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