Book Title: Swatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Author(s): Kanaknandi Acharya
Publisher: Dharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
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करेगा । दिक् अनन्त काल अनन्त एवम् शक्ति अक्षय होने से, जिस दिक् में एक द्रव्य गति करता है, वह द्रव्य उस दिक् के अनन्त आकाश की ओर अनन्त काल तक गति करता ही रहता है, परन्तु केन्द्राकर्षण शक्ति, बाह्य भौतिक या जैविक आदि विरोध शक्ति के कारण उस गति में परिवर्तन आ जाता है। जैसे एक गेंद को यदि ऊर्ध्व दिक् में फेंकते है तो वह कुछ समय के पश्चात् नीचे गिर जाती है। इसका कारण यह है कि, गेंद को ऊपर फेंकने के लिए जो शक्ति प्रयोग की गई थी, उससे वह ऊपर की ओर उठी थी, परन्तु पृथ्वी की केन्द्राकर्षण शक्ति के कारण उसमें परिवर्तन आया और कुछ समय के बाद उस गेंद की उर्ध्व गति में परिवर्तन होकर अधोगति हो गई । '
एक अन्य उदाहरण खेत से पक्षी उड़ाने वाले रस्सी के एक यंत्र विशेष में पत्थर आदि रखकर रस्सी के दोनों छोरों को पकड़कर अपनी ओर घुमाते हैं। रस्सी के साथ - 2 पत्थर भी घूमता रहता है। कुछ समय के बाद रस्सी के एक छोर को छोड़ देते हैं जिससे वह पत्थर छूट कर सीधा दूर जाता है। जिस समय, वह व्यक्ति रस्सी के दोनों छोर पकड़कर घुमा रहा था, उस समय पत्थर उस व्यक्ति की घुमाव शक्ति से प्रेरित होकर आगे भागने का प्रयास करता था, परन्तु दोनों छोर को पकड़कर घुमाने के कारण वह पत्थर रस्सी के साथ - 2 वर्तुलाकार में घूमता रहता था। जब उस व्यक्ति ने रस्सी के एक छोर को छोड़ दिया तो वह पत्थर उस बन्धन मुक्त होकर आगे भागा । इसी प्रकार जीव की स्वाभाविक उर्ध्वगति होते हुए भी विरोधात्मक कर्म शक्ति से प्रेरित होकर कर्म संयुक्त संसारी जीव चतुर्गति रूपी संसार में परिभ्रमण कर रहा है, परन्तु जब वह कर्मबन्धनों से मुक्त हो जाता है तब अन्य गतियों निवृत्त होकर स्वाभाविक उर्ध्व गति से गमन करता है।
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प्रकृति-बन्ध, स्थिती - बन्ध, अनुभाग-बन्ध, प्रदेश- बन्ध से सम्पूर्ण रूप से मुक्त होने के बाद परिशुद्ध स्वतंत्र शुद्धात्मा तिर्यक् आदि गतियों को छोड़कर उर्ध्व गमन करता है।
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पर्याड़ ठिदि अणुभागप्पदेस बंधेहिं सव्वदो मुक्को । उड्डुं गच्छदि सेसा विदिसा वज्जं गदिं जंति ॥
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