Book Title: Swatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Author(s): Kanaknandi Acharya
Publisher: Dharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
View full book text
________________
45 लाख योजन इसका प्रमाण है। स्वामी- मनः पर्यय ज्ञान प्रमतसंयत से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक के
उत्कृष्ट चारित्र गुण से युक्त जीवों के ही पाया जाता है। वहाँ उत्पन्न होता हुआ भी वह वर्द्धमान चारित्र वाले जीवों के ही उत्पन्न होता है, घटते हुए चारित्र वालों के नहीं। वर्धमान चारित्र वाले जीवों में उत्पन्न हुआ भी सात प्रकार की ऋद्धियों में से एक ऋद्धि को प्राप्त हुए जीवों के ही उत्पन्न होते है अन्य के नहीं। ऋद्धि प्राप्त जीवों में भी किन्ही के ही उत्पन्न होता है सबके नहीं, इस प्रकार सूत्र में इसका स्वामी विशेष या विशिष्ट संयम का ग्रहण प्रकृत है। परन्तु अवधिज्ञान चारों गति के जीवों के होता है, इस लिए स्वामियों के
भेद से भी इनमें अंतर है। विषय :- अवधिज्ञान के विषय का क्षेत्र समस्त लोक है किन्तु मन:पर्ययज्ञान
के विषय का क्षेत्र पैतालीस लाख योजन का घन रूप ही है। इतने क्षेत्र में स्थित अपने योग्य विषय को ही ये ज्ञान जानते है। . मति और श्रुतज्ञान का विषय
मतिश्रुतयोर्निबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु। (26) The-subject matter of sensitive and scriptural knowledge is all the six substances but not in all their modifications. मतिज्ञान और श्रुतज्ञान की प्रवृत्ति कुछ पर्यायों से युक्त सब द्रव्यों में होती हैं।
मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान की प्रवृति जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश व कालादि सर्व द्रव्यों में होती हैं परन्तु उसकी सब पर्यायों में नहीं होती। परन्तु कुछ पर्यायों में होती है। इन दोनों ज्ञान का विषय सर्वद्रव्य की अनन्तपर्यायें नहीं परन्तु कुछ पर्यायें होती है।
क्योंकि मतिज्ञान चक्ष आदि इन्द्रियों के अवलम्बनभत है। इसलिये जिस द्रव्य में रूपादि है उसी को जानते हैं, सर्वपर्यायों को नहीं जान सकते। अर्थात्
95
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org